रही सुखेत ठौर बृन्दाबन, रनहु न मानति हारि।
बिलपति रही संभारत छन छन बदन-सुधाकर-बारि॥
सुंदरस्याम-मनोहर-मूरति रहिहौं छबिहि निहारि।
रंचक सेष रही सूर प्रभु अब जनि डारौ मारि॥१५१॥
मधुकर! कौन मनायो मानै?
अबिनासी अति अगम अगोचर कहा प्रीति-रस जानै?
सिखवहु ताहि समाधि की बातें जैहैं लोग सयाने।
हम अपने ब्रज ऐसेहि बसिहैं बिरह-बाय-बौराने॥
सोवत जागत सपने सौंतुख[१] रहिहैं सो पति माने।
बालकुमार किसोर को लीलासिंधु सो तामें साने॥
पर्यो जो पयनिधि बूंद अलप[२] सो को जो अब पहिचाने?
जाके तन धन प्रान सूर हरि-मुख-मुसुकानि बिकाने॥१५२॥
मधुकर! ये मन बिगरि परे।
समुझत नाहिं ज्ञानगीता को हरि-मुसुकानि अरे॥
बालमुकुंद-रूप-रसराचे तातें बक्र खरे।
होय न सूधी स्वान पूँछि ज्यों कोटिक जतन करे॥
हरि-पद-नलिन बिसारत नाहीं सीतल उर संचरे।
जोग गंभीर[३] है अंधकूप तेहि देखत दूरि डरे॥
हरि-अनुराग सुहाग भाग भरे अमिय तें गरल गरे।
सूरदास बरु ऐसेहि रहिहैं कान्हबियोग-भरे॥१५३॥