पृष्ठ:भ्रमरगीत-सार.djvu/१६६

विकिस्रोत से
यह पृष्ठ प्रमाणित है।
८७
भ्रमरगीत-सार
 


राग कान्हरो
ऊधो! सरद समयहू आयो।

बहुतै दिवस रटत चातक तकि तेउ स्वाति-जल पायो॥
कबहुँक ध्यान धरत उर-अन्तर मुख मुरली लै गावत।
सो रसरास पुलिन जमुना की ससि देखे सुधि आवत॥
जासों लगन-प्रीति अन्तरगत औगुन गुन करि भावत।
हमसों कपट, लोक-डर तातें सूर सनेह जनावत॥२२४॥


राग सारंग
ऊधो! कौन कुदिन छाँड़्यो हो गोकुल।

बहुरि न आए फिरि या ब्रज में, बिछुर्‌यो तबहिं मिल्यो अब सो कुल॥
गरग-बचन समुझे अब मधुबन-कथा-प्रसंग सुन्यो हो जो कुल।
सूर भये अब त्रिभुवन के पति नातो ज्ञाति लहे अब निज कुल॥२२५॥


ऊधो! राखिए वह बात।

कहत हौ अनहद सुबानी सुनत हम चपि जात॥
जोग फल-कुष्मांड ऐसो अजामुख न समात।
बारबार न भाखिए कोउ अमृत तजि बिष खात?
नयन प्यासे रूप के, जल दए नाहिं अघात।
सूर प्रभु मन हरि गए लै छाँड़ि तन-कुसलात[१]॥२२६॥


ऊधो! बात तिहारी जानी।

आए हौ ब्रज को बिन काजहि, दहत हृदय कटु बानी॥
जो पै स्याम रहत घट तौ कत बिरह-बिथा न परानी?
झूठी बातनि क्यों मन मानत चलमति, अलप[२] गियानी[३]


  1. कुसलात=कुशल, मंगल।
  2. अलप=थोड़ी।
  3. गियानी=बुद्धिवाला।