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भ्रमरगीत-सार
ऊधो! सरद समयहू आयो।
बहुतै दिवस रटत चातक तकि तेउ स्वाति-जल पायो॥
कबहुँक ध्यान धरत उर-अन्तर मुख मुरली लै गावत।
सो रसरास पुलिन जमुना की ससि देखे सुधि आवत॥
जासों लगन-प्रीति अन्तरगत औगुन गुन करि भावत।
हमसों कपट, लोक-डर तातें सूर सनेह जनावत॥२२४॥
ऊधो! कौन कुदिन छाँड़्यो हो गोकुल।
बहुरि न आए फिरि या ब्रज में, बिछुर्यो तबहिं मिल्यो अब सो कुल॥
गरग-बचन समुझे अब मधुबन-कथा-प्रसंग सुन्यो हो जो कुल।
सूर भये अब त्रिभुवन के पति नातो ज्ञाति लहे अब निज कुल॥२२५॥
कहत हौ अनहद सुबानी सुनत हम चपि जात॥
जोग फल-कुष्मांड ऐसो अजामुख न समात।
बारबार न भाखिए कोउ अमृत तजि बिष खात?
नयन प्यासे रूप के, जल दए नाहिं अघात।
सूर प्रभु मन हरि गए लै छाँड़ि तन-कुसलात[१]॥२२६॥