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भ्रमरगीत-सार
 

जा दिन तें मधुपुरी सिधारे धीरज रह्यो न मोर।
जन्म जन्म की दासी तुम्हरी नागर नंदकिसोर॥
चितवनि-बान लगाए मोहन निकसे उर वहि ओर[१]
सूरदास प्रभु कबहिं मिलौगे, कहाँ रहे रनछोर?॥२३०॥


ऊधो! अब नहिं स्याम हमारे।

मधुबन बसत बदलि से गे वे, माधव मधुप तिहारे॥
इतनिहि दूरि भए कछु औरै, जोय जोय मगु हारे।
कपटी कुटिल काक कोकिल ज्यों अन्त भए उड़ि न्यारे॥
रस लै भँवर जाय स्वारथ-हित प्रीतम चितहिं बिसारे।
सूरदास तिनसों कह कहिए जे तन हूँ मन कारे॥२३१॥


ऊधो! पा लागौं भले आए।

तुम देखे जनु माधव देखे, तुम त्रयताप नसाए॥
नँद जसोदा नातो टूटो बेद पुरानन गाए।
हम अहीरि, तुम अहिर नाम तजि निर्गुन नाम लखाए॥
तब यहि घोष खेल बहु खेले ऊखल भुजा बँधाए।
सूरदास प्रभु यहै सूल जिय बहुरि न चरन दिखाए॥२३२॥


ऊधो! निरगुन कहत हौ तुमहीं अब धौं लेहु।

सगुन मूरति नंदनन्दन हमहिं आनि सु देहु॥
अगम पन्थ परम कठिन गवन तहाँ नाहिं।
सनकादिक भूलि परे अबला कहँ जाहिं?
पञ्चतत्त्व प्रकृति कहो अपर कैसे जानि?
मन बच क्रम कहत सूर बैरनि की बानि॥२३३॥


  1. वहि ओर=उस पार।