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भ्रमरगीत-सार
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सीऊ कहि डारौ पा लागैं, हम सब सुनि सहिबे को॥
यह उपदेस आज लौं मैं, सखि, स्रवन सुन्यो नहिं देख्यो।
नीरस कटुक तपत जीवनगत, चाहत मन उर लेख्यो!
बसत स्याम निकसत न एक पल हिये मनोहर ऐन।
या[१] कहँ यहाँ ठौर नाहीं, लै राखौ जहाँ सुचैन॥
हम सब सखि गोपाल-उपासिनि हमसों बातैं छाँड़ि।
सुर मधुप! लै राखु मधुपुरी कुबजा के घर गाड़ि॥२३४॥
ऊधो! कहियो सबै सोहती।
जाहि ज्ञान सिखवन तुम आए सो कहौं ब्रज में कोय ती?
अंतहु सीख सुनहुगे हमरी कहियत बात बिचारि।
फुरत[२] न बचन कछू कहिबे को, रहे प्रीति सों हारि॥
देखियत हौ करुना की मूरति, सुनियत हौ परपीरक[३]।[४]
सोय करौ ज्यों मिटै हृदय को दाह परै उर सीरक[५]॥
राजपंथ तें टारि बतावत उरझ कुबील कुपैंड़ो।
सूरदास[६] समाय कहाँ लौं अज के बदन कुम्हैड़ो?॥२३५॥
जो तुम करत सिखावन सो हमैं नाहिंन नेकु सुहात॥
- ↑ या कहँ=अर्थात् निगुण को।
- ↑ फुरत = मुँह से निकलता है।
- ↑ देखियत...परपीरक=देखने में तो बड़े दयालु जान पड़ते हो पर तुम्हारी बातें सुनने में बड़ी पीड़ा होती है।
- ↑ 'परपीरक' का अर्थ होता है 'दूसरे की पीड़ा समझनेवाला, पराई पीड़ा का अनुभव करनेवाला'।
- ↑ सीरक=ठंढा।
- ↑ यहाँ टंकण की अशुद्धि से सूरजदास छप गया है।