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पृष्ठ:भ्रमरगीत-सार.djvu/१७७

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भ्रमरगीत-सार
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चितहि उचाटि मेलि गए रावल[] मन हरि हरि जु लए।
सूरदास प्रभु दूत-धरम तजि बिष के बीज बए॥२५४॥


मधुकर! कहाँ पढ़ी यह नीति?
लोकबेद स्रुति-ग्रंथ-रहित सब कथा कहत विपरीत॥
जन्मभूमि ब्रज, जननि जसोदा केहि अपराध तजी?
अति कुलीन गुन रूप अमित सब दासी जाय भजी[]
जोगसमाधि गूढ़ स्रुति मुनिमग क्यों समुझिहै गँवारि।
जौ पै गुन-अतीत व्यापक तौ होहिं, कहा है गारि?
रहु रे मधुप! कपट स्वारथ हित तजि बहु बचन बिसेखि।
मन क्रम बचन बचत यहि नाते सूर स्याम तन देखि॥२५५॥


मधुकर! होहु यहाँ तें न्यारे।
तुम देखत तन अधिक तपत है अरु नयनन के तारे॥
अपनो जोग सैंति[] धरि राखौ, यहाँ लेत को, डारे?
तोरे हित अपने मुख करिहैं मीठे तें नहिं खारे॥
हमरे गिरिवरधर के नाम गुन बसे कान्ह उर बारे।
सूरदास हम सबै एकमत, तुम सब खोटे कारे॥२५६॥


राग नट

मधुप! बिराने लोग बटाऊ[]
दिन दस रहत काज अपने को तजि गए फिरे न काऊ[]
प्रथम सिद्धि पठई हरि हमको, आयौ ज्ञान अगाऊ।
हमको जोग, भोग कुब्जा को, वाको यहै सुभाऊ॥


  1. रावल=महल, राजभवन
  2. भजी=अंगीकार को।
  3. सैंति=सहेजकर।
  4. बटाऊ=पथिक।)
  5. काऊ=कभी