पृष्ठ:भ्रमरगीत-सार.djvu/१७९

विकिस्रोत से
यह पृष्ठ प्रमाणित है।
भ्रमरगीत-सार
१००
 

ऊधो, उठो सबै पा लागैं, देख्यो ज्ञान तुम्हारो।
सूरदास मुख बहुरि देखिहैं जीजौ कान्ह हमारो॥२५८॥


मधुकर! कौन देस तें आए?
जब तें क्रूर गयो लै मोहन तब तें भेद न पाए॥
जाने सखा साधु हरिजू के अवधि बदन को आए।
अब या भाग, नन्दनन्दन को या स्वामित[१] को पाए॥
आसन, ध्यान, वायु-अवरोधन, अलि, तन मन अति भाए।
है बिचित्र अति, गुनत सुलच्छन गुनी जोगमत गाए॥
मुद्रा, सिंगी, भस्म, त्वचा मृग, ब्रजजुवती-तन ताए।
अतसी[२] कुसुमबरन मुख मुरली सूर स्याम किन लाए?॥२५९॥


मधुकर! कान्ह कही नहिं होहीं।
यह तौ नई सखी सिखई है निज अनुराग बरोही[३]
सँचि राखी कूबरी-पीठि पै ये बातैं चकचोही[४]
स्याम सुगाहक पाय, सखी री, छार दिखायो मोही॥
नागरमनि जे सोभा-सागर जग जुवती हँसि मोही।
लियो रूप[५] है ज्ञान ठगौरी, भलो ठग्यो ठग वोही।
है निर्गुन सरवरि कुबरी अब घटी करी हम जोही॥
सूर सो नागरि जोग दीन जिन तिनहिं आज सब सोही॥२६०॥


राग सोरठ।
मधुकर! अब धौं कहा कर्‌यो चाहत?
ये सब भईं चित्र की पुतरी सून्य सरीरहिं दाहत॥


  1. स्वामित=प्रभुता।
  2. अतसी=अलसी, तीसी।
  3. बरोही=बल से।
  4. चकचोही=चुहल की।
  5. लियो रूप=रूप ले लिया, निराकार कर दिया, बदले में ठगकर ज्ञान दे दिया।