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भ्रमरगीत-सार
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राग मारू

मधुकर की संगति तें जनियत बंस अपन चितयो[१]
बिन समझे कह चहति सुन्दरी सोई मुख-कमल गह्यो॥
ब्याधनाद कह जानै हरिनी करसायल की नारि?
आलापहु, गावहु, कै नाचहु दावँ परे लै मारि॥
जुआ कियो ब्रजमंडल यह हरि जीति अबिधि सों खेलि।
हाथ परी सो गही चपल तिय, रखी सदन में हेलि[२]
ऊनो[३] कर्म कियो मातुल[४] बधि मदिरा-मत्त प्रमाद।
सूर स्याम एते औगुन में निर्गुन तें अति स्वाद॥२६४॥


राग सोरठ

मधुकर! चलु आगे तें दूर।
जोग सिखावन को हमैं आयो बड़ो निपट तू क्रूर॥
जा घट रहत स्यामघन सुन्दर सदा निरन्तर पूर।
ताहि छाँड़ि क्यों सून्य अराधैं, खोवैं अपनो मूर[५]?
ब्रज में सब गोपाल-उपासी, कोउ न लगावै धूर।
अपनो नेम सदा जो निबाहै सोई कहावै सूर॥२६५॥


मधुकर! सुनहु लोचन-बात।
बहुत रोके अंग सब पै नयन उड़ि उड़ि जात॥
ज्यों कपोत बियोग-आतुर भ्रमत है तजि धाम।
जात दृग त्यों, फिरि न आवत बिना दरसे स्याम॥


  1. बंस अपन चितयो=अपना वंश ताका, अपने कुल में गए।
  2. सदन...हेलि =घर में डाल रखी।
  3. ऊनो=ओछा, खोटा।
  4. मातुल=मामा (कंस)।
  5. मूर=पूँजी, मूलधन।