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भ्रमरगीत-सार
 


राग धनाश्री

को कहै हरि सों बात हमारी?
हम तौ यह तब तें जिय जान्यौ जबै भए मधुकर अधिकारी॥
एक प्रकृति, एकै कैतव[१]-गति, तेहि गुन अस जिय भावै।
प्रगटत है नव कंज मनोहर, ब्रज किंसुक कारन कत आवै॥
कंजतीर चंपक-रस-चंचल[२], गति सब ही तें न्यारी।
ता अलि की संगति बसि मधुपुरि सूरदास प्रभु सुरति बिसारी॥३०७॥


हमारे स्याम चलन चहत हैं दूरि।
मधुबन बसत आस ही[३] सजनी! अब मरिहैं जो बिसूरि॥
कौने कही, कहाँ सुनि आई? केहि दिसि रथ की धूरि।
संगहि सबै चलौ माधव के नातरु मरिबो झूरि।
पच्छिम दिसि एक नगर द्वारका, सिन्धु रह्यो जल पूरि।
सूर स्याम क्यों जीवहिं बाला, जात सजीवन मूरि॥३०८॥


उती दूर तें को आवै हो।
जाके हाथ सँदेस पठाऊँ सो कहि कान्ह कहाँ पावै हो॥
सिंधुकूल एक देस कहत हैं, देख्यो सुन्यो न मन धावै हो।
तहाँ रच्यो नव नगर नंदसुत पुरि द्वारका कहावै हो॥
कंचन के सब भवन मनोहर, राजा रंक न तृन छावै हो।
ह्वा के सब बासी लोगन को ब्रज को बसिबो नहिं भावै हो॥
बहु विधि करति बिलाप बिरहिनी बहुत उपावन चित लावै हो।
कहा करौं कहँ जाउँ सूर प्रभु को मोहिं हरि पै पहुँचावै हो॥३०९॥


  1. कैतव-गति=धोखे या छल की चाल!
  2. रस चंचल=कमल के पास रहकर भी चंपा के लिए चंचल होता है जो उसके काम का नहीं।
  3. ही=थी।