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भ्रमरगीत-सार
परम चतुर सुन्दर सुख सागर तन को प्रिय प्रतिहार[३]।
रूप-लकुट[४]रोके रहतो, सखि! अनुदिन नंदकुमार॥
अब ता बिनु उर-भवन भयो है सिव-रिपु[५] को संचार।
दुख आवत मन, हटक[६] न मानत, सूनो देखि अगार॥
असु[७]स-उसास[८]जात अँतर तें करत न सकुच बिचार॥
निसा निमेष-कपाट[९] लगे बिनु ससि सत सत सर मार॥
यह गति मेरी भई है हरि बिनु नाहिं कछू परिहार।
सूरदास प्रभु बेगि मिलहु तुम नागर नँदकुमार॥३२१॥
राग मलार
ऐसो सुनियत हैं द्वै सावन।
वहै बात फिरि फिरि सालति है स्याम कह्यो है आवन॥
तब तो प्रीति करी, अब लागीं अपनो कीयो पावन।
यहि दुख सखी निकसि उत जैये जिते सुनै कोउ नावँ न।
एकहि बेर तजी हम्ह, लागे मथुरा नेह बढ़ावन।
सूर सुरति कत होति हमारी, लागीं नीकी[१०]भावन॥३२२॥