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पृष्ठ:भ्रमरगीत-सार.djvu/२०४

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भ्रमरगीत-सार
 

कान्ह बिना गेसुत को चारै, को ल्यावै भरि दोहन?
माखन खात संग ग्वालन के, और सखा सब गोहन[]
ज्यों-ज्यों सुरति करति हौं, सखि री! त्यों त्यों अधिक मनमोहन।
सूरदास स्वामी के बिछुरे क्यों जीबहिं इन छोहन[]॥३२०॥


परम चतुर सुन्दर सुख सागर तन को प्रिय प्रतिहार[]
रूप-लकुट[]रोके रहतो, सखि! अनुदिन नंदकुमार॥
अब ता बिनु उर-भवन भयो है सिव-रिपु[] को संचार।
दुख आवत मन, हटक[] न मानत, सूनो देखि अगार॥
असु[]स-उसास[]जात अँतर तें करत न सकुच बिचार॥
निसा निमेष-कपाट[] लगे बिनु ससि सत सत सर मार॥
यह गति मेरी भई है हरि बिनु नाहिं कछू परिहार।
सूरदास प्रभु बेगि मिलहु तुम नागर नँदकुमार॥३२१॥


राग मलार

ऐसो सुनियत हैं द्वै सावन।
वहै बात फिरि फिरि सालति है स्याम कह्यो है आवन॥
तब तो प्रीति करी, अब लागीं अपनो कीयो पावन।
यहि दुख सखी निकसि उत जैये जिते सुनै कोउ नावँ न।
एकहि बेर तजी हम्ह, लागे मथुरा नेह बढ़ावन।
सूर सुरति कत होति हमारी, लागीं नीकी[१०]भावन॥३२२॥


  1. गोहन=साथ।
  2. छोहन=क्षोभ से।
  3. प्रतिहार=पहरेदार, द्वारपाल।
  4. रूप-लकुट=अपने सुंदर रूप की लाठी से।
  5. सिव-रिपु=काम।
  6. हटक=निषेध, मना करना।
  7. असु=प्राण।
  8. स-उसास=साँस के साथ।
  9. निमेष-कपाट=पलक रूपी किवाड़।
  10. नीकी=अच्छी या सुन्दरी स्त्रियाँ।