यह सँदेस कुब्जा कहि पठयो अरु कीन्ही मनुहारी।
तन टेढ़ी सब कोऊ जानत, परसे भइ अधिकारी॥
हौं तौ दासी कंसराय की, देखहु हृदय बिचारी।
सूर स्याम करुनाकर स्वामी अपने हाथ सँवारी॥३७८॥
उद्धव-गोपी-संवाद
उद्धव-वचन
राग सारंग
हौं तुम पै ब्रजनाथ पठायो। आतमज्ञान-सिखावन आयो॥
आपुहि पुरुष, आपुही नारी। आपुहि बानप्रस्थ ब्रतधारी॥
आपुहि पिता, आपुही माता। आपुहि भगिनी, आपुहि भ्राता॥
आपुहि पंडित, आपुहि ज्ञानी। आपुहि राजा, आपुहि रानी॥
आपुहि धरती, आपु अकासा। आपुहि स्वामी, आपुहि दासा॥
आपुहि ग्वाल, आपुही गाई। आपुहि आप चरावन जाई॥
आपुहि भँवर, आपुही फूल। आतमज्ञान बिना जग भूल॥
रंक राव दूजो नहिं कोय। आपुहि आप निरंजन सोय॥
यहि प्रकार जाको मन लागै। जरा, मरन, जी तें भ्रम भागे॥
गोपी-वचन
सुनु ऊधो! ह्याँ कौन सयानी?। तुम तौ महापुरुष बड़ज्ञानी॥
जोगी होय सो जोगहि जानै। नवधा भक्ति सदा मन मानै॥
भाव-भगति हरिजन चित धारे। ज्योति-रूप सिव सनक बिचारे॥
तुम कह रचि रचि कहत सयानी[१]। अबला हरि के रूप दिवानी॥
जात[२]-पीर बंझा नहिं जानै। बिनु देखे कैसे रुचि मानैं?
फिरि फ़िरि कहे वहै सुधि आवै। स्यामरूप बिनु और न भावै॥