पृष्ठ:भ्रमरगीत-सार.djvu/२३४

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(८)

गाहैं॰=दुःख में डूबती हैं। [१९४] स्यामसूल॰=श्रीकृष्ण की पीड़ा में पगा हुआ। ऋषि=शुद्ध 'ऋजु', सीधा। [१९६] पुलिन=तट। [१९७] बिरह-बीज=बिरहमय। सलिल॰=अधर-माधुरी के जल में मिलाकर। बल न॰=औषध का कोई बल नहीं लगता, औषध काम नहीं करती। सरै=हो। [१९८] हे=थे। दाम=रस्सी से। पति=प्रतिष्ठा। रसनिधि=आनन्द के सागर। [१९९] नेह-नग=प्रेमरूपी रत्न। बुझानी=समझ में आई। [२००] हमरे॰= हमारे गुण गाँठ में क्यों नहीं बाँधे, हमारे गुणों का विचार क्यों नहीं किया। [२०१] देह॰=शरीर दुःख की सीमा नहीं पाता, दुखों का अन्त नहीं मिलता। [२०२] आन=शपथ। आमिष=मांस। हित=प्रिय। किंगरी=छोटी सारंगी, चिकारा। सुर ध्वनि। लग=तक। ब्रजभान= ब्रजभानु, श्रीकृष्ण। [२०४] बाली=छेड़ी। साली=धँसी। ब्रजबाली=ब्रज की बालाएँ। [२०५] इतने=इतने पक्षी। प्रतिपारे=पाला-पोसा। बिडारे=नष्ट कर दिए। कीर=नासिका। कपोत=गर्दन। कोकिला=वाणी। खंजन=आँखें। [२०६] सत्वर=शीघ्र। मधु-रिपु=श्रीकृष्ण। जगी=जागरण। क्वाथ=काढ़ा। मूरि=जड़ी। सुख=अनुकूल, लाभदायक। [२०८] निबर्ति=पूजा करके। [२१०] अराध=आराधना करे। बरीस=वर्ष। पुरवौ=पूर्ण कर दो। [२११] रीते=रिक्त; खाली। कारन=कालों की। फेरनि=लपेट, पहनावा। घरनि=एकत्र करना, चराना। कौर=कड़ा। [२१३] घोष=ग्वालों का गाँव। संपुट=बन्द। दिनमनि=सूर्य। [२१४] रथ पलान्यो=रथ पर चढ़ कर गए। [२१७] पाहन=(पाषाण) पत्थर, कठिन। [२१८] जावदेक=यावन्मात्र, सबको। [२१९] चित॰=मन। [२२०] विधि॰=ब्रह्मरूपी कुम्हार। घट=घड़ा; शरीर। दरसन॰=देखने की आशा ही घड़ों का फेरा जाना है। कर॰=श्रीकृष्ण के काम आए, उनके लिए शकुन-सूचक हुए। [२२१] काती=कुत्ता, छुरा। सवाती=