पृष्ठ:भ्रमरगीत-सार.djvu/६१

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उद्धव के ब्रज में दिखाई पड़ते ही सारे ब्रजवासी उन्हें घेर लेते हैं। वे नंद यशोदा से सँदेसा कह चुकने के उपरांत गोपियों की ओर फिर कर कृष्ण के संदेश के रूप में ज्ञान-चर्चा छेड़ते हैं। इसी बीच में एक भौंरा उड़ता उड़ता गोपियों के पास आकर गुनगुनाने लगता है––

यहि अंतर मधुकर इक आयो।
निज सुभाव अनुसार निकट होइ सुन्दर शब्द सुनायो॥
पूछन लागी ताहि गोपिका "कुबजा तोहिं पठायो।
कैधौं सूर स्यामसुन्दर को हमैं सँदेसो लायो?"॥

फिर तो गोपियाँ मानो उसी भ्रमर को संबोधन करके जो जो जी में आता है, खरी खोटी, उलटी सीधी, सब सुना चलती हैं। इसी से इस प्रसंग का नाम 'भ्रमरगीत' पड़ा है। कभी गोपियाँ उद्धव का नाम लेकर कहती हैं, कभी उसी भ्रमर को संबोधन करके कहती हैं––विशेषतः जब परुष और कठोर वचन मुँह से निकालना होता है। श्रृंगार रस का ऐसा सुन्दर 'उपालंभ काव्य' दूसरा नहीं है।

उद्धव को देखते ही गोपियों को संबंघ-भावना के कारण कृष्ण के मिलने का सा सुख हुआ––

ऊधो! पा लागौं भले आए।
तुम देखे जनु माधव देखे, तुम त्रय ताप नसाए॥
प्रिय के संबंध से बहुत सी वस्तुएँ प्रिय लगने लगती है।

यही बात यहाँ अपने स्वाभाविक रूप में दिखाई गई है। इसी को बढ़ाकर विहारी कुछ और दूर तक ले गए हैं। उनकी नायिका को नायक के भेजे हुए पंखे की हवा लगने से उलटा और पसीना होता है। यह एक तमाशे की बात जरूर हो गई है––