सामग्री पर जाएँ

पृष्ठ:भ्रमरगीत-सार.djvu/६२

विकिस्रोत से
यह पृष्ठ प्रमाणित है।
[५३]

हित करि तुम पठयो, लगे वा बिजना की बाय।
टरी तपनि तन की तऊ चली पसीने न्हाय॥

सूर ने भी प्रिय की वस्तु पाकर 'सात्त्विक' होना दिखाया है, पर तमाशे के रूप में नहीं, अत्यंत स्वाभाविक और मर्मस्पर्शी रूप में तथा अत्यंत अर्थ-प्राचुर्य के साथ। उद्धव के हाथ से श्याम की पत्री राधा अपने हाथ में लेती हैं और––

निरखत अंक स्यामसुन्दर के बार बार लावति छाती।
लोचन-जल कागद-मसि मिलिकै ह्वै गइ स्याम स्याम की पाती॥

आँसुओं से भींगकर स्याही के फैलने से सारी चिट्ठी काली हो गई, इससे कृष्ण-संबंध की भावना के कारण प्रबल प्रेमोद्रेक सूचित हुआ। आगे देखिए तो इस प्रेमोद्रेक की तीव्रता व्यंजित करने के लिए 'अंक' और 'स्याम' शब्दों में श्लेष कैसा काम कर रहा है। पत्री पाकर वैसा ही प्रेम उमड़ा जैसा कृष्ण को पाकर उमड़ता। कृष्ण की पत्री ही उनके लिए कृष्ण हो गई। जैसे वे कृष्ण के अंक (गोद अर्थात् शरीर) को पाकर आलिंगन करतीं वैसे ही कृष्ण के लिखे अंक (अक्षर) देखकर वे पत्री को बार बार हृदय से लगाती हैं। यहाँ भावाधिपति सूर ने भाव का और आधिक्य व्यंजित करने के लिए शब्दसाम्य की सहायता ऐसे कौशल से ली है कि एक बार शब्दों का साधारण अर्थ (अक्षर और काला) लेने से जिस भाव की अधिकता सूचित हुई फिर आगे उनका श्लिष्ट अर्थ (गोद और श्रीकृष्ण) लेने से उसी भाव की और अधिकता व्यंजित हुई। इससे जो लाघव हुआ है––मज़मून में जो चुस्ती आई है––वह तो है ही, साथ ही प्रेम के अन्तर्भूत एक मानसिक दशा के चित्र का रंग कैसा चटकोला हो गया है! शब्दसाम्य को उपयोग में लानेवाला सच्चा कवि-कौशल यही है।