पृष्ठ:भ्रमरगीत-सार.djvu/७०

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साथ ही इस अर्थ का भी पूरा संकेत मिलता है––"जिसमें कुछ मूलधन या पास की पूँजी नहीं लगी हैं" अर्थात् वह (ज्ञान-गठरी) केवल किसी के मुँह से सुनकर इकट्ठी कर ली गई है, उसमें हृदय नहीं लगा है––लग ही नहीं सकता––जो मनुष्य की असल पूँजी है। सूर ने यहाँ जिस बात को इस मार्मिक ढंग से कहा है उसी को गोस्वामी तुलसीदासजी ने दार्शनिक निरूपण के ढंग पर 'स्वानुभूति' और 'वाक्य-ज्ञान' का भेद बताकर कहा है––

वाक्य-ज्ञान अत्यँत निपुन भव पार न पावै कोई।
जिमि गृह मध्य दीप की वातन तम निवृत्त नहिं होई॥

पूर्ण तत्त्वाभास केवल कोरी बुद्धि की क्रिया से नहीं हो सकता, यह बात शंकराचार्य्य ऐसे प्रचंड बुद्धि के दार्शनिक को भी माननी पड़ी थी। पारमार्थिक सत्ता के बोध की संभावना उन्होंने बहुत कुछ स्वानुभूति द्वारा कही है, केवल शब्दबोध या तर्क द्वारा नहीं। वर्त्तमान समय का सबसे आगे बढ़ा हुआ दार्शनिक बर्गसन (Bergson) भी कोरी बुद्धि-क्रिया को एकांगी, भ्रांति-जनक और असमर्थ बताकर स्वानुभूति (Intution) की ओर संकेत कर रहा है। एडवर्ड कार्पेटर ने भी अपनी प्रसिद्ध अँगरेजी पुस्तक Civilization, its Causes and Cure में वर्त्तमान समय की उस वैज्ञानिक प्रवृत्ति का विरोध किया है जिसमें बुद्धि-क्रिया ही सब कुछ मानी गई है मनुष्य के हृदय-पक्ष तथा स्वानुभूति-पक्ष का एक दम तिरस्कार कर दिया है। उसने 'शब्दबोध की प्रणाली' को 'अज्ञान प्रणाली' कहा है। वर्त्तमान काल के प्रसिद्ध उर्दू शायर अकबर ने भी 'बुद्धि-रोग' से छुटकारा, पाने पर खुशी ज़ाहिर की है––"मैं मरीज़े होश था मस्ती ने अच्छा कर दिया"। यही पक्ष तुलसी, सूर आदि भक्तों का भी रहा है। गोस्वामी तुलसी-