पृष्ठ:भ्रमरगीत-सार.djvu/७७

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हम अपने ब्रज ऐसेइ बसिहैं बिरह-बाय-बौराने।

वे उद्धव को उलटा समझाती हैं कि विरह से भी प्रेम की पुष्टि होती है, वह पक्का होता है––

ऊधो! बिरहौ प्रेम करै।
ज्यों बिनु पुट पट गहै न रंगहि, पुट गहे रसहि परै।
जौ आवौं घट दहत अनल तनु तौ पुनि अमिय भरै॥

इसे प्रेम-सिद्धांत का उपदेश मात्र समझ कर न छोड़िए, भाव के स्वरूप पर भी ध्यान दीजिए। यह प्रतिकूल स्थिति की अनि वार्य्यता से उत्पन्न 'आत्म-समाधान' की स्वाभाविक वृत्ति है। एक अफ़ीमची घोड़ी पर सवार कहीं जा रहे थे। जिधर उन्हें जाना था उधर का रास्ता छोड़ घोड़ी दूसरी ओर चलने लगी। जब बहुत मोड़ने पर भी वह न मुड़ी तब उन्होंने बाग ढीली करके कहा––"अच्छा, चल! इधर भी मेरा काम है"। इसी प्रकार की अंतर्वृत्ति इस वाक्य से भी झलकती है––

हम तौ दुहूँ भाँति फल पायो।
जौ व्रजनाथ मिलैं तो नीको, नातरु जग जस गायो।

यह तो 'आत्म-समाधान' हुआ। दूसरे की कोई बात न मानने पर मन में कुछ खटक सी रहती है कि इसे दुःख पहुँचा होगा अपनी इस खटक को मिटाने के लिए दूसरे के समाधान की प्रवृत्ति होती है; जैसे––

उधो? मनमाने की बात।
जरत पतंग दीप में जैसे औ फिरि फिरि लपटात।
रहत चकोर पुहुमि पर,मधुकर! ससि अकास भरमात॥

इस समाधान के अतिरिक्त 'धृति' की भी व्यंजना देखिए––