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भ्रमरगीत-सार
 

कहियो जाय नंदबाबा सों निपट निठुर जिय कीन्हो।
सूर स्याम पहुँचाय मधुपुरी[१] बहुरि सँदेस न लीन्हो॥१०॥


राग कल्याण
उद्धव मन अभिलाष बढ़ायो।

जदुपति जोग जानि जिय साँचो नयन अकास चढ़ायो॥
नारिन पै मोको पठवत हौ कहत लिखावन जोग।
मनहीं मन अब करत प्रसंसा है मिथ्या सुख-भोग॥
आयसु मानि लियो सिर ऊपर प्रभु-आज्ञा परमान।
सूरदास प्रभु पठवत गोकुल मैं क्यों कहौं कि आन॥११॥


उद्धव प्रति कुब्जा के वाक्य
राग सारंग

सुनियो एक सँदेसो ऊधो तुम गोकुल को जात।
ता पाछे तुम कहियो उनसों एक हमारी बात॥
मात-पिता को हेत जानि कै कान्ह मधुपुरी आए।
नाहिंन स्याम तिहारे प्रीतम, ना जसुदा के जाए॥
समुझौ बूझौ अपने मन में तुम जो कहा भलो कीन्हो।
कह बालक, तुम मत्त ग्वालिनी सबै आप-बस कीन्हो॥
और जसोदा माखन-काजै बहुतक त्रास दिखाई।
तुमहिं सबै मिलि दाँवरि दीन्ही रंच[२] दया नहिं आई॥
अरु वृषभानसुता जो कीन्ही सो तुम सब जिय जानो।
याही लाज तजी ब्रज मोहन अब काहे दुख मानो?
सूरदास यह सुनि सुनि बातैं स्याम रहे सिर नाई।
इत कुब्जा उत प्रेम ग्वालिनी कहत न कछु बनि आई॥१२॥


  1. मधुपुरी=मथुरा।
  2. रंच=तनिक, ज़रा भी।