कवि 'मतिराम' काम तीरहू सुतीछन
कटाच्छन की कोरैं छेदि छाती मैं गड़ाई हैं।
खंजरीट, कंज, मोन, मृगन के नैनन की
छीन-छीन लेती छबि, ऐसी तैं लड़ाई हैं;
तेरी अँखियान मैं बिलोकी यह 'बड़ी बात'
इते पर बड़ी-बड़ी पावती 'बड़ाई' हैं।"
(९) प्राचीन काल में चोरी करनेवाले को बहुत ही कठोर दंड दिया जाता था। चोर के मुख में स्याही पोतकर नगर के आस- पास घुमाना भी एक प्रकार का दंड था। नायिका की छवि (रुचि) चुरा लेने को चंद्रमा ने अपने कर (हाथ―किरण) फैलाए थे—चोरी करने का इरादा किया था। इसी कारण ब्रह्मा ने उसके मुख में कारिख (कलंक) लगा दी, और अमरालय के आस-पास घूमने का हुक्म दे दिया-कैसा अच्छा इंसाफ़ किया! चोर को यही दंड मिलना चाहिए था। मतिरामजी कहते हैं—
"सुंदरिबदनि राधे, सोभा को सदन तेरो
बदन बनायो चारिबदन बनायकै;
ताकी रुचि लैन को उदित भयो रैनिपति,
मूढ़मति राख्यो निज कर बगरायकै।
'मतिराम' कहै, निसिचर चोर जानि याहि
दीनी है सजाय कमलासन रिसायकै;
रातौ-दिन फेरै अमरालय के आस-पास
मुख मैं कलंक-मिस कारिख लगाय कै।
मतिरामजी के ग्रंथों में उनके विस्तृत ज्ञान का पद-पद पर प्रमाण मिलता है। ऊपर केवल दिग्दर्शन-स्वरूप कुछ उदाहरण दिए गए हैं।
मतिराम-सतसई के कुछ दोहे
नीचे हम मतिराम-सतसई के कुछ अच्छे दोहे पाठकों की भेंट करते हैं।