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पृष्ठ:मतिराम-ग्रंथावली.djvu/१३३

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१२९
समीक्षा

स्थायी भाव है। इसका आलंबन विभाव दुःखार्त गजराज है। गज-राज की दीनता से भरी पुकार (गरज) उद्दीपन विभाव है। इस गरज को सुनकर दुःख दूर करने के लिये व्रजराज का दौड़ पड़ना अनुभाव है। गजराज की रक्षा के लिये धैर्य और मति आदि कई भावों का जो संचार हुआ है, वे संचारी भाव हैं। इस प्रकार आलंबन विभाव उद्दीपन विभाव से उद्दीपित हो और संचारी भावों से परिपुष्ट होकर स्थायी भाव को रसत्व-संज्ञा प्राप्त कराने के योग्य बनाता है। स्थायी भाव उत्साह है। इसलिये कविता में वीर रस स्थापित हुआ। यह वीर रस पराए दुःख को दूर करने के लिये है। इसकी प्रेरणा दया के द्वारा हुई है। इसलिये यह वीर रस का 'दयावीर'-नामक रूपांतर है।

काव्य—गजराज ने 'अशरण के शरण की चरण-शरण ली', इसका मतलब यह है कि उसने भगवान् का आश्रय लिया। इसी प्रकार यह कथन कि 'भगवान् को गजराज की गरज बीच मार्ग में मिली' यह अर्थ प्रकट करता है कि भगवान् ने गज की पुकार बहुत शीघ्र सुनी। ऐसे वर्णन अभिधा-मूलक नहीं कहे जा सकते, परंतु छंद के प्रथम दो पदों में अभिधाशक्ति का संपूर्ण परिचय है। कुल छंद में वाक्य के तट से जो अर्थ लिया गया है, वही प्रधान होने से यह लक्षणा-मूलक मध्यम काव्य है।

चिंत्य प्रयोग—हमारी राय में 'इलाज बिरची' प्रयोग चिंत्य है। 'इलाज' शब्द अरबी भाषा का है। हिंदी शब्द-सागर में यह पुंलिंग माना गया है। यद्यपि इसका अर्थ तदवीर भी है, परंतु मुख्य अर्थ दवा है।

'दीनबंधु निज नाम की सुलाज की' प्रयोग में 'सु' अक्षर व्यर्थ है। प्रथम पद में वारिचर के जय-काज के इलाज के विरचने की सूचना दी गई, वह छंद में प्रत्यक्ष कहीं भी नहीं है। छंद में वर्णित