पृष्ठ:मतिराम-ग्रंथावली.djvu/१४७

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समीक्षा

                                       १४३

बात की बहुत कुछ संभावना है कि नायिका वचन-विदग्धा और क्रिया-विदग्धा भी हो। ध्वनि-वाच्यार्थ और लक्ष्यार्थ से भिन्न व्यंग्यार्थ से ही छंद का यथार्थ अर्थ बैठता है । "तू ऐसे निर्जन प्रदेश में दधि बेचने क्यों जाती है ?" इस वाक्य के वाच्यार्थ अथवा लक्ष्यार्थ में कोई चमत्कार नहीं है, पर व्यंग्यार्थ मनोहर है। कहने का अभिप्राय यह है कि "तू ऐसे ही निर्जन प्रदेश में दधि बेचने के बह ने से मुझे मिलना", सो व्यंग्यार्थ इष्ट होने से इसमें ध्वनि हुई। इस ध्वनि को साहित्यवेत्ता और प्रवीण पुरुष ही समझ सकते हैं, इस कारण यह गूढ़ ध्वनि है। फिर भी इसमें वाच्यार्थ का संपूर्ण परित्याग नहीं हुआ, वरन् व्यंग्यार्थ द्वारा एक घटना-विशेष का बोध कराया गया है, सो यह विवक्षित वाच्यांतर्गत वस्तु-ध्वनि का रूप है । उपपति और परकीया के अपराधभूत इस व्यंग्यमय वर्णन में व्यंजक पात्र है। अलंकार-(१) कोकिल और कपोतों के कलरव रूप हेतु और दूसरे की बात सुन पड़ना रूप हेतुमान के साथ-ही-साथ रहने से छंद के प्रथम पद में 'हेतु'-अलंकार है। (२) अमरावली और अंधकार की संगति से और भी अंधकार बढ़ गया है । संगति-गुण का ऐसा प्रभाव अनुगुण-अलंकार की सत्ता का बोध कराता है। (३) भ्रमरों की श्यामता एवं अंधकार की श्यामता का सम संयोग हुआ है, सो 'सम'-अलंकार की किंचित् झलक दिखलाई पड़ती है। (४) 'नखत-से फूले हैं सुफूलन के पुंज घन' में नखत उपमान, फूल उपमेय, 'से' वाचक और फूले हैं समान धर्म की उपस्थिति के कारण पूर्णोपमा अलंकार स्पष्ट है। (५) "कुंजनि में होति जहाँ दिन हूँ मैं राति है", इस वाक्य का