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मतिराम-ग्रंथावली


अभिप्राय यह है कि रात बीत जाने पर दिन में भी रात्रि का रात्रित्व- गुण (अंधकार) मौजूद रहता है। दिन के प्रकाश-गुण का आलिंगन नहीं होता। अन्य के गुण का दूसरे पर प्रभाव न पड़ना 'अतन्गुण'- अलंकार का रूप है । कुंजों में रात्रि, दिन होने पर भी, दिन के गुण को नहीं ग्रहण करती । वहाँ रात्रि ही रहती है। इस प्रकार अतद्गुण- अलंकार सिद्ध हुआ ।

(६) 'कोकिल-कपोत मिलि२ मतिराम अधियारी अधिकाति, बन की४ बाट और संग न५ सहेली साथ' आदि में शब्दालंकारों में अनुमान का स्मरणीय चमत्कार है ।

उपरि-दर्शित कई अलंकारों के अतिरिक्त छंद में और भी कई अलंकारों की स्थापना की जा सकती है। विशेष करके अंतिम पद में तो कई अलंकारों का सामंजस्य है, फिर भी ध्वनि के चमत्कार के विचार से अलंकार प्रमुखता एक प्रकार से नष्ट हो गई है, नहीं तो संपूर्ण छंद में पर्यायोक्ति का प्रभाव बुरा न था । ध्वनि से अनुप्राणित रहने के कारण ही संकर और संसृष्टि का भी विवेचन यहाँ व्यर्थ समझ पड़ता है । मतिरामजी ने अपने छंद में व्यंग्यार्थ को ही प्रधानता दी है । अलंकार-सन्निवेश के लिये उनका प्रयास नहीं हुआ है । सो छंद-भर में ध्वनि का ही प्राधान्य माननीय है। .

दोष-छंद में जहाँ-जहाँ का तीन बार प्रयोग हुआ है, जो अच्छा नहीं मालूम होता। दूसरे पद में 'मतिराम' शब्द का 'मति' एक यति में और 'राम' दूसरी यति में पड़ता है, यह यति-भंग-दूषण कहलाता है । फूलों का वर्णन करने के पहले ही कवि ने भ्रमरों का आधिक्य दिखलाया है, जो उचित नहीं समझ पड़ता । फूलों की उपमा नक्षत्रों से दी गई है; परंतु सब फूल सफ़ेद, पीले और लाल नहीं होते। नीले और काले फूलों का नक्षत्रों से साम्य ठीक न ठहरेगा । नक्षत्र पद असमर्थ है।