पृष्ठ:मतिराम-ग्रंथावली.djvu/१४९

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गुण-रस का उत्कर्ष कई कारणों से होता है। कविता में कई गुण ऐसे हैं, जो रसोत्कर्ष के प्रधान सहायक हैं । विचारों की सुकु- मारता एवं वर्णन-शैली की मदुलता तथा पदावली की मधुरता के यथोचित सन्निवेश से कोई-कोई रचना ऐसी लोकोत्तर, आनंददायिनी और रमणीय बन जाती है कि उमे पढ़ते ही चित्त द्रवीभूत हो जाता है। इस प्रकार की रचना में विद्वानों ने माधुर्यगुण का होना माना है। मतिरामजी के उपर्युक्त छंद में भी यह माधुर्यगुण मौजूद है।

वृत्ति-माधुर्यगुण का व्यंजन करनेवाली जिस रचना में अनुस्वारों की प्रचुरता, ट ठ ड ढ का अभाव, द्वित्व लकार, य र ल व और ह्रस्व रेफादि विशेष रूप से पाए जाते हैं, उसको मधुरा या कैशिकी वृत्ति कहते हैं (रसवाटिका) । मतिरामजी के छंद में केवल 'बाट'-शब्द में एक बार टवर्ग आया है, जो क्षम्य है।

रीति-माधुर्यगुण-युक्त जिस पद-रचना में समास-समेत पद बहुत ही कम हों, उसे वैदर्भी रीति कहते हैं । मतिरामज़ो के उपर्युक्त छंद में समास-युक्त पदों के न होने से वैदर्भी रीति स्पष्ट है।

काव्य-काव्य के उत्तम, मध्यम और अधम तीन भेद हैं । उत्तम काव्य वह है, जिस में व्यंग्यार्थ मुख्य हो । व्यंजक पात्र की आधार शुद्ध परकीया, उपपति आदि माने गए हैं। मतिरामजी के इस छंद में भी व्यंजक पात्र के आधार ऐसे ही हैं । यह ऊपर प्रतिपादित हो हो चुका है कि छंद में ध्वनि का सब प्रकार से प्राधान्य है, ऐसी दशा में यह रचना उत्तम काव्य का नमूना है।

तुलना-मतिरामजी के उपर्युक्त छंद के भाव को उनके परवर्ती कई कवियों ने अपनाया है । उदाहरण के लिये उदयनाथ (कविंद) और भिखारीदास (दासजी) के छंद उद्धत किए जाते हैं। कहना न होगा कि मतिरामजी के रचना-चमत्कार को दोनो ही कवि नहीं