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मतिराम-ग्रंथावली


पहुँचते । पदों का जो सुष्ठ न्यास और अर्थ-गांभीर्य मतिराम में है, वह इन रचनाओं में कहाँ ?

"नदी नीर बारे जहाँ, नारे-खारे भारे जहाँ,

राति के अँध्यारे जहाँ, कासौ होत गौन है;

फिर तू अकेली अलबेली, तहाँ नेह-बस,

केली-हेतु हेली, जहाँ भूतन को भौन है।

भनत 'कबिंद' कोऊ सँग न सहेलो भेली,

गुनन गहेली नाही, संक धरि मौन है।

नीठी हू न हेतु जहाँ दीठि को निबेरौ एरो,

नेरो तहाँ सुंदरि, सहाय तेरो कौन है ?"

. (कविंद) "भौन अँध्यारोह चाहि, अँध्यारो चमेली के कुंज के पुंज बने हैं,

बोलत मोर, करै पिक सोर, जहाँ-तहाँ गुंजत भौर घने हैं;

'दास' रच्यो अपने ही बिलास को मैन ज्यों हाथन सों अपने हैं,

कूल कलिंदजा के सुख-मूल लतान के बृद बितान तने हैं।"

(दास)

मतिरामजी की ध्वनि का चमत्कार दोनो ही छंदों में बिगड़ गया है। फिर भी दास का छंद कविंद के छंद से अच्छा है । हिंदी-कविता- प्रणाली के अनुसार मतिरामजी के छंद की समालोचना करने के बाद यदि अँगरेजी-समालोचना-पद्धति का अनुसरण करते हुए उक्त छंद के विषय में कुछ लिखा जाय, तो पूर्ण आशा है कि वह प्रेमी. पाठकों को अरुचिकर न होगा । अस्तु । आइए, देखिए १९वीं शताब्दी के इंगलैंड के विश्व-विख्यात समालोचक श्रीयुत जेम्स हेनरी ले हंट (James Henry Leigh Hunt) अपने 'कविता क्या है ? इस प्रश्न का उत्तर' (An Answer to the Question-What Is Poetry?) शीर्षक गवेषणा-पूर्ण निबंध में सत्यकाव्य के लिये किन- किन बातों को परम आवश्यक मानते हैं । उनका कथन है-