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मतिराम-ग्रंथावली

RECENTER १५२ मतिराम-ग्रंथावली "पिय आयो, नव बाल-तन बाढ्यो हरस-बिलास; प्रथम बारि-बूंदन उठ, ज्यों बसुमती सुबास ।" - (मतिराम) आगतपतिका नायिका के हर्ष की तुलना प्रथम वारि-वर्षण से समुद्भूत वसुमती-सुवास से कितनी हृदयहारिणी है ! अगर छोटे मुंह बड़ी बात न मानी जाय, तो मतिराम कालिदास के पीछे नहीं हैं। २. “गतप्राया रात्रिः, कृशतनुशशी शीर्यत इव, प्रदीपोऽयं निद्रावशमुपगतो घूर्णत इव; प्रणामान्तः कोपस्तदपि न जहासि क्रुधमहो, ___ स्तनप्रत्यासत्त्या हृदयमपि ते चण्डि कठिनम् ।" मानवती के मान-संबंधी विस्तृत वर्णन को थोड़े ही में निपटाकर हृदय और उरोजों के साथ-साथ रहने से बराबर ही कठोर होने वाले भाव को मतिरामजी अपने छोटे-से दोहे में किस सफ़ाई से निभाते हैं- "करत लाल मनुहारि पै, तू न लखत यहि ओर; ऐसो उर जु कठोर, तौ उचितहि उरजु कठोर ।" जब उर ऐसा कठोर है, तो उरज (कुच, उर से पैदा होनेवाले) का कठोर होना ठीक ही है। ३. "अधरोऽयमधीराक्ष्या बन्धुजीवप्रभाहरः; अन्यजीवप्रभां हन्त ! हरतीति किमद्भुतम् ।" . "इन चंचल नेत्रवाली के अधर बंधुजीव (गुलदुपहरिया के फूल) की प्रभा को हरनेवाले हैं, अर्थात् उनसे भी अधिक लाल और सुंदर हैं। जब वे बंधुजीव (अपने भाई के जीवन) की प्रभा को हर लेते हैं, तो दूसरों के जीवन की प्रभा हर लेंगे, इसमें आश्चर्य ही क्या है ? बंधुजीव इस शब्द में श्लेष है। इसके माने गुलदुपहरिया का फल तथा भाई का जीवन, दोनो हैं।" (अनुवादक-पं० जनार्दन भट्ट एम्० ए०) HTTARA MATKAR valuminiummamimminent o omrund-