पृष्ठ:मतिराम-ग्रंथावली.djvu/१७३

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समीक्षा अद्वितीय ग्रंथ है। कविवर मतिरामजी ने भी अपने ग्रंथों में अनेक दोहों की रचना की है । उन्होंने दोहामय मतिराम-सतसई भी बनाई है । यह सतसई बिहारी-सतसई से कुछ ही घटकर है । कुछ विद्वानों की राय है कि अगर किसी के दोहे बिहारीलाल के दोहों की समा- नता को पहुँचते हैं, तो वे मतिराम के ही दोहे हैं। हमारी राय में मतिराम के कोई-कोई दोहे वास्तव में अनुपम हैं। इस ग्रंथावली में पाठकों को स्थल-स्थल पर मतिराम के कुछ ऐसे दोहे पढ़ने को मिलेंगे । मतिराम और बिहारी के किसी-किसी दोहे में भाव-सादृश्य पाया जाता है। यह सादृश्य भावापहरण के कारण है, अथवा दोनो ही कवियों को एक साथ ही समान भाव सूझे हैं-यह बात निश्चय- पूर्वक नहीं कही जा सकती; पर दोनो की कविता में भाव-सादृश्य हैं अवश्य । यहाँ इस प्रकार के कुछ उदाहरण उद्धृत किए जाते हैं। दोनो पर युगपद् ध्यान देने से अलौकिक आनंद प्राप्त होता है- (१) शरद् का शुभागमन है । निर्मल जल की बहार है । खंजन पक्षी गृहस्थों के आँगन-आँगन में नाच रहा है। सरोवरों में कमल फूले हुए हैं। रात्रि में शशधर अपनी षोडश कला से उदित होता है । शृंगारी कवि बिहारीलाल और मतिरामजी, दोनो ही इस प्रकृति- सौंदर्य को देखते हैं। शरदागम का सुहावना समय नायिका के अव- यवों का प्रतिस्पर्धी बनता है। बिहारीलालजी कहते हैं- "अरुन सरोरुह कर-चरन, दृग खंजन, मुख चंद, समय आय सुंदरि सरद काहि न करत अनंद ?" इसी भाव का निर्वाह मतिरामजी यों करते हैं- "पिय-आगम सरदागमन, बिमल बाल-मुख चंद; अंग अमल पानिप भयो, फूले दृग अरबिंद।" उभय कविवरों में किसका भाव विशेष रमणीय है, इसका भार सहृदय पाठकों की रुचि पर छोड़कर हम केवल इतना ही कहना