पृष्ठ:मतिराम-ग्रंथावली.djvu/१७६

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S १७२ मतिराम-ग्रंथावली AALEEDIAS i daiseshinila (५) "लाज-लगाम न मानहीं, नैना मो बस नाहि ये मुंहजोर तुरंग लौं ऐचत हूँ चलि जाहिं ।" (बिहारीलाल) "मानत लाज-लगाम नहिं, न कुन गहत मरोर; होत लाल लखि बाल के दृग-तुरंग मुंहजोर।" (मतिराम) दृग-तुरंगों पर अपना बस न रहने के कारण बिहारीलाल का यह कहना कि "नैना मो बस नाहि" बड़ा ही विदग्धता-पूर्ण और सुकुमार भाव है। 'दृग-तुरंग' का रूपक बड़ी शान-बान से उठा था, पर 'लौं' वाचक के प्रयोग से बिहारीलाल ने उसे बिगाड़ दिया। मतिरामजी के दोहे में इतनी विशेषता अवश्य है कि उन्होंने रूपक नहीं बिगड़ने दिया। (६) प्रिय और प्रियतमा का साक्षात्कार हुआ है। दोनो एक दूसरे को टकटकी लगाकर देख रहे हैं। सात्त्विक प्रभाव से अश्रु- प्रवाह हुआ है। इस दृश्य का फ़ोटो खींचना उभय कवियों को अभीष्ट है। एक कवि नायक-नायिका, दोनो के नेत्रों के अश्रु-प्रवाह को देख- कर नेत्र-पिचकारी द्वारा एक-दूसरे पर प्रेम-रंग छिड़कवाता है, तो दूसरा 'रीझ' के भार से थकी हुई आँखों में 'श्रम जल' का आना दिखलाता है। दोनो ही बड़े सुकुमार भाव हैं- "रस-भिजए दोऊ, दुहुन इकटक रहे, टरे न; छबि सों छिरकत प्रेम-रँग भरि पिचकारी नैन ।" (बिहारी) "बाल रही इकटक निरखि ललित लाल-मुख इंदु रोझ-भार अँखियाँ थकी, झलके सम-जल-बिंदु ।" (मतिराम) 'को बड़-छोट, कहत अपराधू'-बाले गोस्वामीजी के कथन के