पृष्ठ:मतिराम-ग्रंथावली.djvu/१७७

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१७३
समीक्षा

समीक्षा १७३ अनुसार हम नहीं कह सकते कि दोनो में कौन भाव आगे निकल जाता है ? सहृदय पाठक स्वयं निर्णय कर लें। (७) मर्यादा भाग ४, संख्या १, पृष्ठ ३ पर पं० शिवाधार पांडेय एम० ए०, एल-एल० बी० लिखते हैं- "चढ़ी अटारी बाम वह, कियो प्रनाम निखोट; ____तरनि-किरनि ते दृगन की कर-सरोज करि ओट।" यह क्रिया-विदग्धा का उदाहरण है। पति को नीचे जाता हुआ देखकर कोई स्त्री सूर्य को प्रणाम करने के बहाने नेत्रों की ओट करके नीचे पति की ओर देखती है xxx उधर प्रणाम का बहाना भी हो जाता है, इधर अपने लजीले नेत्रों के लिये सूर्य भगवान् से क्षमा भी मांगी जाती है। यह शृंगार में एक अद्भुत भक्ति और हास्य- रस का प्रवेश है XXX । बिहारी भी इसी तरह के एक दोहे को कहते हैं, पर कहना न होगा कि मतिराम की मिठास को नहीं पाते- "रबि बंदी कर जोरिकै, सुने स्थाम के बैन; भए हंसोहैं सबन के अति अनखौहैं नैन ।" यहाँ न वह भाव ही है, न वह अवस्था ही और न वह अद्भुत- रस ही; कोरा हास्य-रस है। (८) शरीर में आभूषण, नेत्रों में कज्जल और पैरों में महावर का व्यवहार करने से नायिका की शोभा नहीं बढ़ती है। यह सब शृंगार कहने-भर को है । इस आशय को बिहारीलाल ने अपने छोटे- से दोहे में बड़ी ही मार्मिकता से दिखलाया है। अपनी सवैया में मतिराम का भी वही लक्ष्य है, पर लेखक को बिहारी के दोहे से विशेष सहानुभूति है- "तन भूषन, अंजन दृगन, पगन महावर रंग; नहि सोभा को साज यह, कहिबेई के अंग।"