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मतिराम-ग्रंथावली

१७४ मतिराम-ग्रंथावली "जावक-रंग रँगे पद-पंकज नाह को चित्त रँग्यो रँग यात; अंजन देकरि नैननि मैं सुखमा बढ़ी स्याम-सरोज प्रभात । सोने के भूषन अंग रच्यो, 'मतिराम' सबै बस कीबे की घातै ; यों ही चलें, न सिंगार सुभावहिं, मैं सखि, भलि कहीं सब बातें।" ___ उपर्युक्त उदाहरणों से पाठकगण निश्चय कर सकते हैं कि कवि- वर मतिरामजी बिहारीलाल से बहुत पीछे नहीं रह जाते । ___ मतिराम और आलम 'आलम-केलि' और 'रसराज' को साथ-साथ पढ़िए, तो आपको भाव-सादृश्य के अनेक उदाहरण मिलेंगे। यदि मतिरामजी कहते हैं कि- "पानिप बिमल की झलक झलकन लागी, काई-सी गई है लरिकाई मिटि अंग ते।" तो हम आलम को भी वयःसंधि के वर्णन में ठीक यही बात कहते पाते हैं। उनके कथन को सुनकर कौन न कहेगा कि दोनो भाव एक हैं। देखिए- "आलम उमॅगि रूप-सोना-सरवर भरयो, पानिप ते काई लरिकाई मिटि गई है।" मतिरामजी का अन्यसंभोगदुःखिता नायिका का उदाहरण लीजिए- "याही को पठाई, बड़ो काम करि आई, बड़ी तेरी है बड़ाई, लख्यो लोचन लजीले सों; साँची क्यों न कहै, कछ मोको किधौं आपुही को, पाई बकसीस, लाई बसन छबीले सों। 'कबि मतिराम' मोसो कहत सँदेसोऊ न, भरे नख-सिख अंग हरख कटीले सों;