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पृष्ठ:मतिराम-ग्रंथावली.djvu/२०५

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समीक्षा

लजाइए। तब राणाजी ने कहा कि यह 'दीवान' पदवी आप ही को मुबारक हो। नारायणदासजी ने निडर होकर कहा, ऐसा ही होगा, और युद्ध से नहीं हटे। उसी समय से बूंदी के महाराज लोग 'दीवान' कहलाते हैं। मतिरामजी ने जो राव भाऊ सिंहजी को बार-बार 'दीवान' लिखा है, वह बिलकुल उचित है। बूंदी के महाराजों के लिये 'दीवान' पदवी बड़े ही अभिमान की वस्तु है।

सुरजन

संवत् १६११ में बूंदी की राजगद्दी पर सुरजनजी बैठे। इनके समय बूंदी-राज्य की आशातीत उन्नति हुई। रणथंभोर-दुर्ग के संबंध में सम्राट अकबर के साथ इनका घोर युद्ध हुआ; परंतु लाख उपाय करने पर भी जब अकबर को दुर्ग जीतने में सफलता न प्राप्त हो सकी, तो उसने संधि द्वारा इस कार्य को संपादन करने का विचार किया। इसके लिये जयपुर-नरेश भगवानदास और मानसिंह को दुर्ग में भेजा, और स्वयं भी वेष बदलकर उनके साथ गया। सुरजनजी अनुभवी और चतुर योद्धा थे। उन्होंने अकबर को पहचान लिया। यदि सुरजनजी उस समय चाहते, तो अकबर को बंदी कर सकते थे; परंतु उन्होंने वह काम किया, जिससे अकबर क्षण-भर के लिये किंकर्तव्य-विमूढ़ हो गया। सुरजनजी ने अकबर की बाँह पकड़कर उसको अपने स्थान पर बैठा लिया। क्षण-भर में संधि की शर्ते तय हो गईं। उदार-हृदय अकबर ने बूंदी-नरेश की शर्ते स्वीकार करके राजपूताने के इस प्रभावशाली राज्य को सदा के लिये अपना वशवर्ती बना लिया। यहाँ के नरेशों की बदौलत आगे चलकर मुग़ल-बादशाहों को बड़े-बड़े लाभ पहुँचे। सुरजनजी की जो शर्ते अकबर ने स्वीकृत की थीं, वे ये हैं—

(१) हम (सुरजन) अपनी लड़की बादशाह को न देंगे।