पृष्ठ:मतिराम-ग्रंथावली.djvu/२३६

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मतिराम-ग्रंथावली

ne 20 २३२ मतिराम-ग्रंथावली r aneloniheroi ते ग्रंथ को नाम रसराज है सो रस नाइका-नाइक के आधीन होत है ।। इति ॥ १॥" रसराज टीका संयुक्त बख्तेश । r anoSDEPEADEREDURIKA imamalindinetriindipahend "दोहा ॥ समुझि-समुझि सब रीझिहै सज्जन सुकबि-समाज । रसिकन के रस को कियो सकल भयो रसराज ॥४२४॥ कवि मति- राम कहै के मैंने जो रसराज ग्रंथ कियौ सो जे रसिक रस के जानन- वारे सज्जन अरु सुकविन के समाज ते सुनि समुझि के सब रीझिहै।" (रसराज-तिलक प्रतापसाहि-कृत) Napse mes "मोहि पठाई कुंज में, सठ आयो नहिं आप । आली औरौ मित को, मेरो मिटयो मिलाप ॥१५४॥ x x x मेरे और मित्र का मिलाप मिटा याते नायका कुलटा जानी जाती है और लालच नहीं पाया जाता है याने गनिका साबित नहीं होती है। उत्तर । जो कुलटा होती तो सखी से कहती कि मुझे किसी और पुरुष से मिलाओ पर इसे और पुरुष की अभिलाषा नहीं है सो धन देनेवाले और मित्रों का मिलाप मिटा क्योंकि सदैव बैसिक नायक इसके घर पर आते थे सो वह समय नहीं रहा गनिका बिप्रलब्धा स्पष्ट ।" (मनोहरप्रकाश टीका रसराज कवि हरिदानजी-कृत) "कवि मतिराम गणेश कौं सुमिरत सुख सरसत । स्रौन पौन लागें बिधन तूल तूल उड़ि जात ॥ मतिराम कवि कहै हैं गणेश कौं सुमि- रत तें सुख सरसावत है कानन की पवन लगते ही बिघन प्रत्यूहन को तूल लंबाव अर्थात् फैलाव सोई भयो तूल रुई सो उड़ि जात है, अथवा विघ्न है सो रुई के तुल्य उड़ि जात है यहाँ सुमिरत सुख सरसात मैं हेतु विघ्न में रूपक, तूल तूल मैं यमकालंकार है।" (ललित कौमुदी टीका ललित ललाम गुलाब-कृत)