पृष्ठ:मतिराम-ग्रंथावली.djvu/२६९

विकिस्रोत से
यह पृष्ठ अभी शोधित नहीं है।
२६५
रसराज

रसराज २६५ उदाहरण क्यों इन आँखिन सों निरसंक है मोहन को तन-पानिप पीजै; नेकु निहारै' कलंक लगै, इहि गाँव बसे कहौ कैसे के जीजै। होत रहै मन यों 'मतिराम', कहँ बन जाय बड़ो तप कीजै; द्वै बनमाल हिए लगिए, अरु कै मुरली अधरा-रस लीजै ॥६०॥ कंत चौक सीमंत की बैठी गाँठि जुराय। पेखि परोसिनि कौं प्रिया बूंघट मैं मुसकाय ॥६१॥ अनूढा-लक्षण अनब्याही केहु पुरुष सों अनुरागिनि जो होय । ताहि अनूढ़ा कहत हैं कबि-कोबिद सब कोय ॥६२॥ उदाहरण गोप-सुता कहै, गौरि गुसाइँन ! पायँ परौं, बिनती सुनि लीजै; दीन-दया-निधि दासी के ऊपर नेक सूचित्त दया-रस भीजै। देहि जो ब्याहि उछाह सों मोहन, मात-पिता ह को सो मन कीजै; सुंदर साँवरो नंदकुमार, बस उर जो वह, सो बर दीजै ॥६३॥ १ लखे तें। छं० नं० ६० इहि गाँव बसे कहौ कैसे के जीज=इस गाँव में रहकर कैसे जिंदा रह सकते हैं । बनमाल =बैजयंती माला, जो कृष्णचंद्र धारण करते थे। परकीयत्व का प्रतिपादन इस भाँति होता है कि नायिका को इस जन्म में श्रीकृष्ण से मिलने की आशा नहीं है, क्योंकि वह जानती है कि मैं विवाहित हूँ, अब इस जन्म में दूसरा पति नहीं पा सकती। छं०नं० ६१ नायिका अपने पति के साथ गाँठ जोड़कर सीमंत-संस्कार का काम पूरा कर रही है, पर पास ही पड़ोसिन के प्रियतम को बैठा देखकर चूंघट से मुस्कराती भी है। असल में जिस पुत्र के लिये सीमंत-संस्कार (मूल-शांति) हो रही है, उसकी उत्पत्ति इस पड़ोसी के संसर्ग से हुई है।