ANDIR ma Pasana मतिराम-ग्रंथावली Famous m Sunee mineniengabad मैं सुन आई नंद-घर, अब तू होहु निसंक। राधे-मोहन'-ब्याह सौं जैहै धोव कलंक ॥६४॥ परकीया-भेद परकीया के भेद षट, गुप्ता प्रथम बखान । बहुरि बिदग्धा, लच्छिता, मुदिता, कुलटा मान ॥६५॥ और जु अनुसयना कही, तिनके बिमल बिबेक। बरनत कबि 'मतिराम', यह रस-सिंगार को सेक ॥६६॥ गुप्ता-लक्षण सुरति छिपावै जो तिया सो गुप्ता, उर आनि । बरनत कबि 'मतिराम', यह चतुराई की खानि ॥६७॥ उदाहरण लेन गई हती बागन फूल, अँध्यारी लखें डर बाढ़यो महाई; रोम उठे, तन कंप छटे, 'मतिराम' भई स्रम की सरसाई। बेलिन में उरझी अँगियाँ, छतियाँ अति कंटक के छत-छाई ; देह में नेक सँभार रहयो न, यहाँ लगि भाजि मरू करि आई ॥८॥ भलो नहीं यह केवरो, सजनी ! गेह अराम । बसन फट, कंटक लगै निसि-दिन, आठों जाम ॥६९॥ विदग्धा-भेद द्विबिधि बिदग्धा कहत हैं कबि करि बिमल बिबेक । बचन-बिदग्धा एक है, क्रिया-बिदग्धा एक ॥७०॥ १ माधव, २ त्रिविधि, ३ तहाँई, ४ अटै। छ० नं० ६४ जैहै धोय कलंक=इस वाक्य से स्पष्ट है कि ब्याह के पहले से ही इनके संबंध की चर्चा करके लोग इन्हें कलंकित करते थे। इस प्रकार परकीयत्व स्पष्ट हो जाता है। सखी कहती है कि ब्याह हो जाने से इनका पूर्व कलंक मिट जायगा । छं० नं० ६६ सेक= मत । छं० न०६८ स्रम की सरसाई=श्रम की सरसता, थकान । छत- छाई=घायल हो गई। मरू करि=कठिनता से । Poonam
पृष्ठ:मतिराम-ग्रंथावली.djvu/२७०
दिखावट