पृष्ठ:मतिराम-ग्रंथावली.djvu/२७१

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रसराज


रसराज २६७ विदग्धा-लक्षण करै बचन सौं चातुरी, बचन-बिदग्धा जान । करै क्रिया सौं चातुरी, क्रिया-बिदग्धा मान ॥७१॥ वचन-विदग्धा-उदाहरण आई है निपट साँझ, गैयाँ गईं घर-माँझ, हाँ ते दौरि आई, मेरो कह्यो कान्ह कीजिए। हौं तो हौं अकेली, और दूसरो न देखियत, बन की अँधेरी मैं अधिक भय भीजिए । कबि 'मतिराम' मनमोहन सौं पुनि-पुनि राधिका कहत, बात साँची यै पतीजिए ; कब की हौं हेरति, न हेरे हरि ! पावति हौं, बछरा हिरानो, सो हिराय नैंक दीजिए ॥७२॥ खेत निहारौ' धान को यौं बूझ्यो मुसकाय । इहौ हमारो है कह्यो, सघन ज्वार' दरसाय ॥७३॥ क्रिया-विदग्धा-उदाहरण बैठी तिया गुरलोगन मैं रति नै अति सुंदर रूप बिसेखी ; आयो तहाँ 'मतिराम' सुजान, मनोभव सौं बढ़ि कांति उरेखी। लोचन रूप पियो ही चहैं, अरु लाजनि जात नहीं छबि पेखी ; नैन नमाय रही हिय-माल मैं, लाल की मूरति लाल मैं देखी ॥७४॥ १ आवै, २ निहार, ३ उबर, ४ सु जामैं, ५ बिसेखी। छं० नं० ७२ भय-भीजिए=भय में मग्न होना। छं० २०७३ सघन ज्वार दरसाय=ज्वार के खेत को दिखलाने में यह अभिप्राय है कि उसमें छिपकर केलि करने का अवसर धान के खेत से भी अच्छा है। छं० नं० ७४ मनोभव काम । हिय-माल हृदय पर धारण की हुई माला । लाल पहले स्थान पर कृष्ण और दूसरे पर रत्न।