पृष्ठ:मतिराम-ग्रंथावली.djvu/२८८

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। PROMISERanaa २८४ मतिराम-ग्रंथावली बिसरे बिलासु वे, बिलाय गयो हासु छायो' __ सुंदरि के तन में प्रताप पंचसर कौ; तीछन जुन्हाई भई ग्रीषम को घामु, भयौ भीसम पियूषभानु', भानु दुपहर कौ ॥१५१।। सची भूमि अति जोन्ह सों, झरे कुंज तें फूल । तुम बिन वाको बन भयो खड्गपत्र के तूल ॥१५२॥ साहस करि कुंजनि गई लख्यो न नंदकिसोर । दीप-सिखा-सी थरहरी लगी बयारि-झकोर ॥१५३॥ गणिका-विप्रलब्धा-उदाहरण बारिबिलासिनी कोटि हुलास बढ़ाय के अंग सिँगार बनायौ; पीतम-गेह गई चलि के 'मतिराम' तहाँ न मिल्यो मनभायौ । संग सहेली सों रोसु कियो नहीं, आपुन को यह दोसु लगायौ; हाय मैं कीनो मतो यह कौन जु? आपने भौन न बोलि पठायौ। १५४॥ मोहि पठाई कंज मैं सठ आयो नहिं आप। आली और मिंत को मेरो मिट्यो मिलाप ॥१५५॥ alll १ सोह्यो, २ पियूषमान, ३ हाय कियो मैं मतो यह कौन, ४ मोंसों। छं० नं० १५१ पियूष भान =चंद्रमा । पंचसर=कामदेव । अर- विन्दमशोकं च चूतं च नव मल्लिका; नीलोत्पलं च पञ्चैते पञ्चवाणस्य शायकाः । छं नं० १५२ खड्गपत्र=यमयातना के वर्णन में वृक्ष-विशेष, जिसमें नुकीली तलवारें रहती हैं। यमदूत पापी को खड्गपत्र से उलझाते हैं। छं० नं० १५३ थरहरी=थरथराई, काँप उठी। छं० नं० १५४ हाय मैं कीनो मतो यह कौन=हाय यह मैंने कैसा निश्चय किया। छं० नं० १५५ मित=मित्र। दूसरे मित्र से मतलब धन का है । इसी पद से गणिकत्व सिद्ध होता है ।