पृष्ठ:मतिराम-ग्रंथावली.djvu/२८९

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रसराज २८५ उत्कंठिता-लक्षण आप जाय संकेत में पीव न आयो होय । ताकी मन चिंता करै उत्का कहिए सोय ॥१५६।। मुग्धा-उत्कंठिता-उदाहरण बीति गई जुग जाम निसा ‘मतिराम' मिटी तम की सरसाई; जानति हौं कहूँ और तिया से रहे रस में रमि के रसराई। सोचति सेज परी यों नवेली सहेली सों जाति न बात सुनाई; चंद चढ़यो उदियाचल पै मुखचंद पै आनि चढ़ी पियराई ।। १५७॥ कत न कंत आयो अली, लाजन बुझि सकै न । नवल बाल पलिका परी, पलक न लागत नैन ॥१५८।। मध्या-उत्कंठिता-उदाहरण बारहि बार बिलोकति द्वारहि चौंकि परै तिनके खरके हूँ; सेज परी ‘मतिराम' बिसूरति आई अहो अबही लखि मैं हूँ। संग सखान के खेलत हौ अजहूँ रजनी-पति के अथए हूँ; लालन बेगि न जाहु घरै पुनि बाल न मानिहै पाँय परे हूँ । १५९॥ ___१ रह्यो रस के रस सों रसिकाई, २ बनाई, ३ क्यों, ४ लागै, ५ अलो, ६ फिरि। छं० २० १५७ रहे रस में रमि के रसराई रसराज कृष्ण रस में रमण करते रहे । चंद चढ़यो......पियराई=उधर चंद्रमा निकला नहीं. इधर प्यारी का मुख पीला पड़ गया। छं०नं० १५८ कत न आयो=क्यों आया । छं० नं० १५९ रजनी-पति=चंद्रमा ।