पृष्ठ:मतिराम-ग्रंथावली.djvu/२९५

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२९१
रसराज

Paren ... ... रसराज २९१ अंग-अंग अवलोकि के तिय जोबन की जोति । सुधा-सिंधु-अवगाह-जुत, डीठ नाह की होति ॥१८०॥ __मध्या-स्वाधीनपतिका-उदाहरण जगमगे जोबन अनप तेरो रूप चाहि, रति ऐसी, रंभा-सी, रमा-सी बिसराइए; देखिबे को प्रानप्यारी पास खरो प्रानप्यारो, . चूंघटि उघारि नेक बदन दिखाइए। तेरे अंग-अंग में मिठाई औ लुनाई भरी, 'मतिराम' सुकबि' प्रगट यह पाइए; नायक के नैनन में नाइए सुधा-सी सब, सौतिन के लोचनन लोन-सो लगाइए ॥१८१॥ बड़े आपने दृगन कौं तुम कहि सकौ सु मैन । पिय-नैनन भीतर सदा बसत तिहारे नैन ॥१८२॥ प्रौढ़ा-स्वाधीनपतिका-उदाहरण लालन मैं रति नायक तें सुभ', सुंदरता रुचि कंजन पेखी; बाल में त्यों 'मतिराम' कहै, रति तें अति रूप-कला अवरेखी। सामुहि बैठी लखै इक सेज में, बोल अली सूख प्रीति बिसेखी; भाल में तेरे लिखी बिधि सो, यह लाल की मूरति लाल मैं देखी। १८३॥ सूधा-मधुर तेरे अधर संदर-सुमन-सूगंध । पीय जीव को बंध यह, बंधुजीव को बंध ॥१८४॥ १ कहत, २ सुख, ३ मृदु । छं०नं०१८० सुधा डीठ नाह की होति नायक नायिका के अंगप्रत्यंग की शोभा देखता है तो उसे ऐसा जान पड़ता है मानो उसकी दृष्टि ने अमृत के समुद्र में स्नान कर लिया है । छं० नं० १८४ पीय जीव बंध=नायिका के अधर नायक को बंधन में डालने वाले हैं और बंधुजीव (गुलदुपहरी) फूल के भाई-बंध-से जान पड़ते हैं, बंधुजीव एवं फूल के समान लाल है ।