पृष्ठ:मतिराम-ग्रंथावली.djvu/३१९

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रसराज चित्रहि मैं जाके लखे होत अनंत अनंद । सपने हू कबहू सखी, सो' मिलिहैं ब्रजचंद ।।२८१॥ साक्षात्-दर्शन-उदाहरण मोहन लला को मन-मोहनी बिलोकि बाल, कसकरि' राखति है उमग उमाह कौं; सखिन की दीठि को बचाय कै निहारति है, आनंद-प्रबाह बीच पावत न थाह कौं। कबि 'मतिराम' और सब ही के देखत हूँ, ऐसी भाँति देखति छिपावत उछाह कौं; वेई नैन रूखे-से लगत और लोगन को, वेई नैन लागत सनेह -भरे नाह कौं ॥२८२॥ नंदनंदन के रूप पर, रीझ रही रिझवारि । अधदी अँखियन दई मूंदी प्रीति उघारि ॥२८३।। उद्दीपन-लक्षण चंद, कमल, चंदन, अगर, रितु, बन, बाग-बिहार । उद्दीपन सिंगार के जे उज्जल संभार ॥२८४॥ उदाहरण पूरन चंद उदोत कियौ घन फूलि रही बन जाति सुहाई; भौंरन की अवली कल कैरव-कुंजन पुंजन मैं मृदु गाई । amarumIDORImm 82VMel १ मोहि, २ नीठि गहि, ३ गुरु लोगन के देखत हू, ४ बिधिनि, ५ लागत मिठाई, ६ लोनाई, ७ नंदनंद, ८ कैरव-कुंजन । _छं० नं० २८२ आनंद-प्रबाह बीच पावत न थाह कौं=अथाह आनंद में मग्न हो रही है। सनेह-भरे खूब चिकने, प्रेम-परिपूर्ण । छं० नं० २८३ रिझवारि=रीझनेवाली । अधमूंदी. उघारि=अपने अर्द्धनिमीलित नेत्रों से उसने गुप्त प्रीति प्रकट कर दी।