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मतिराम-ग्रंथावली

NAAM Home ३१८ मतिराम ग्रंथावली याही को कहायो ब्रजराज दिन चारि ही मैं, करी है उजारि ब्रज ऐसी रीति नाधि के; जैसे तुम मोहन ! विलोक्यौ वाकी ओर तैसे', बैरिह सौं बैरी न बिलोक बैर साधि कैं ॥२९४॥ वाको मनु लीने२ लला, बोलो बोल रसाल । झुकत तनक ही बात मैं ललित बेलि बर बाल ॥२९५॥ परिहास-उदाहरण गौने के द्यौस सिँगारन को ‘मतिराम' सहेलिन को गनु आयौ; कंचन के बिछवा पहिरावत, प्यारी सखी परिहास बढ़ायौं । 'पीतम स्रौन समीप सदा बजै' यौं कहि के पहिले पहिरायौं; कामिनि कौल चलावनि कौं, कर ऊँचो कियौ पै चल्यौ न चलायौ।। ___ २९६॥ प्रभा तरोना लाल की परी कपोलन आनि । कहा छपावत चतुर तिय कंत-दंत-छत जानि ॥२९७॥ भुज फुलेल लावत सखी कर चलाय मुसकाय । गाढ़े गहे उरोज पिय, बिहँसी भोह चढ़ाय ॥२९८।। १ जैसे तू बिलोक्यो हरि वाकी ओर फेरि, २ लीन्हो, ३ सी, ४ कहै, 'मतिराम' सहेलिन को मिलि के गन आयो, ५ जनायो, ६ कंज । __छं० नं० २९४ आधि के=पीड़ा करके । अनंग अवराधि के काम की आराधना (पूजा) करके । रीति नाँधि के=ऐसी रीति को जबर्दस्ती चलाकर । बैरिह सौं बैरी साधि के=अत्यंत प्रचंड शत्रु भी शत्रता मानकर कर दृष्टि न डालेगा। छं० नं० २९६ परिहास बढ़ायौ=हँसी की। 'पीतम स्रौन समीप सदा बजे' इससे यह अभिप्राय है कि तुममें और नायक में सुरतिकेलि होती रहे । कुछ अश्लील वर्णन है। इस परि- हास से बनावटी क्रोध दिखलाने के लिये कमल से मारने को हाथ उठाया पर मारा नहीं । छं० नं० २९७ तरोना=तरिवन, कर्ण भूषण, तरकी ।