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पृष्ठ:मतिराम-ग्रंथावली.djvu/३४

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मतिराम-ग्रंथावली

स्थायी नहीं कह सकते हैं। सो अद्भुत रस को रसों में सर्वोच्च आसन नहीं दिलाया जा सकता है।

कुछ विद्वानों की राय में शांत रस ही सर्व-श्रेष्ठ है। मुनींद्रजी का शांत-रस-संबंधी निम्न-लिखित वर्णन बहुत प्रसिद्ध है—

न यत्र दुःखं न सुखं न चिन्ता न द्वेषरागौ न च काचिदिच्छा;
रसः स शान्तः कथितो मुनीन्द्रैः सर्वेषु भावेषु शमः प्रधानः।

पर शांत रस के सर्व-श्रेष्ठ माने जाने के प्रबल विरोधी भी कई आचार्य हैं। यहाँ तक कि संस्कृत-साहित्य के अधिकांश आचार्य तो दृश्य-काव्य में शांत रस का अस्तित्व ही नहीं स्वीकार करते। कुछ-एक तो श्रव्य काव्य में भी शांत का आदर करने को नहीं तैयार हैं। शम एक प्रकार से समस्त क्रिया को शून्यता का प्रादुर्भाव होता है। नाटक में इस भाव का अभिनीत होना असंभव नहीं, तो कष्ट साध्य अवश्य है। ऐसी दशा में शांत-रस-प्रधान नाटकों की रमणीयता और चमत्कार को भारी धक्का पहुँचता है। दृश्य-काव्य में इस प्रकार से शांत-रस का पद कुछ भी नहीं के समान रह जाता है।

उधर मुनींद्र के ऊपर दिए वर्णन से जाना जाता है कि शांत में सुख का भी अभाव माना गया है। पर रस आनंदमय है। उधर इच्छा-शून्यता और अहंकार आदि के न होने से शांत में व्यभिचारी भावों की भी बहुत कम संभावना समझ पड़ती है। इसके अतिरिक्त शांत रस का स्थायी 'निर्वेद' है या 'शम', इस विषय में भी आचार्यों में मतभेद है। इस प्रकार जब 'शांत रस' के रस माने जाने में ही ऐकमत्य नहीं, तब वह रसों में प्रथम आसन ग्रहण कर सकेगा, इसकी कोई संभावना नहीं है। शांत भी रसों में सर्वश्रेष्ठ नहीं ठहरा।

करुण रस का स्थायी भाव शोक है। कहते हैं, एक क्रौंच मिथुन-विहार कर रहा था। एक व्याधे ने उसमें से एक को मार डाला। दूसरा शोकमग्न हो गया। वाल्मीकिजी ने इस दृश्य को देखा।