पृष्ठ:मतिराम-ग्रंथावली.djvu/३५

विकिस्रोत से
यह पृष्ठ अभी शोधित नहीं है।
३१
समीक्षा



सहसा उनके मुंह से एक छंद निकल पड़ा। रामायण की रचना उसी छंद में हुई। कम-से-कम भारतवर्ष में करुण-रस को इस प्रकार का ऐतिहासिक महत्त्व दिया जाता है। करुण-रस-संबंधी इस ऐतिहासिक महत्त्व को यों ही मान लेने पर भी इससे रस की प्रधानता नहीं सिद्ध होती । करुण-रस और विप्रलंभ-शृंगार बहुत मिलते-जलते हैं। दोनो में ही रुदन, खेद आदि पाए जाते हैं। दोनो में मनोव्यथा की समता है।

पर करुण-रस का स्थायी भाव शोक है, और विप्रलंभ का रति । इसके अतिरिक्त करुण निराशामय और विप्रलंभ आशा-पूर्ण है । करुण-रस के उपरि-दर्शित ऐतिहासिक महत्त्व के संबंध में भी इतना निवेदन करना है कि कदाचित् वाल्मीकिजी यदि एकाकी क्रौंच का वध देखते, तो उन्हें इतनी करुणा न उत्पन्न होती । सुंदर-वन में क्रौंच-पक्षी के जोड़े का मनोमोहक दृश्य उनके नेत्र-पटल के सामने था । इस आनंदमय भाव का भंग होना ऋषिवर को असह्य हो गया- उनको मर्मांतक वेदना पहुँची। उसी के आवेश में उनके मुख से अनुष्टुप-छंद का प्रादुर्भाव हुआ। सो इस दृश्य-विशेष से एकमात्र करुण-रस की ही महत्ता नहीं प्रतिपादित होती है।

- विप्रलंभ-शृंगार और शांत-रस की उपस्थिति में करुण-रस में ऐसी कोई बात नहीं रह जाती, जिससे रसों में उसे सबसे ऊंचा स्थान प्राप्त हो सके।

- वीर-रस तीन प्रकार का माना गया है, अर्थात् १ युद्ध-वीर, २ दया-वीर और ३ दान-वीर । इस रस का स्थायी उत्साह है। जान- बूझकर विना कारण पाशविक बल के प्रदर्शन-स्वरूप भी युद्ध हो सकता है, तथा दीनों की रक्षा, सत्सिद्धांतों के समर्थन एवं सभ्यता- संवर्द्धन के लिये भी युद्ध हो सकता है। पहले ढंग का युद्ध निंद्य, पर दूसरे ढंग का प्रशंनीय है।

यद्यपि युद्ध-वीर का स्थायी भाव उत्साह है, फिर भी इस उत्साह