सहसा उनके मुँह से एक छंद निकल पड़ा। रामायण की रचना उसी छंद में हुई। कम-से-कम भारतवर्ष में करुण रस को इस प्रकार का ऐतिहासिक महत्त्व दिया जाता है। करुण रस-संबंधी इस ऐतिहासिक महत्त्व को यों ही मान लेने पर भी इससे रस की प्रधानता नहीं सिद्ध होती। करुण रस और विप्रलंभ श्रृंगार बहुत मिलते-जुलते हैं। दोनो में ही रुदन, खेद आदि पाए जाते हैं। दोनो में मनोव्यथा की समता है।
पर करुण रस का स्थायी भाव शोक है, और विप्रलंभ का रति। इसके अतिरिक्त करुण निराशामय और विप्रलंभ आशा-पूर्ण है। करुण रस के उपरि-दर्शित ऐतिहासिक महत्त्व के संबंध में भी इतना निवेदन करना है कि कदाचित् वाल्मीकिजी यदि एकाकी क्रौंच का वध देखते, तो उन्हें इतनी करुणा न उत्पन्न होती। सुंदर वन में क्रौंच पक्षी के जोड़े का मनोमोहक दृश्य उनके नेत्र-पटल के सामने था। इस आनंदमय भाव का भंग होना ऋषिवर को असह्य हो गया—उनको मर्मांतक वेदना पहुँची। उसी के आवेश में उनके मुख से अनुष्टुप छंद का प्रादुर्भाव हुआ। सो इस दृश्य विशेष से एकमात्र करुण रस की ही महत्ता नहीं प्रतिपादित होती है।
विप्रलंभ श्रृंगार और शांत रस की उपस्थिति में करुण रस में ऐसी कोई बात नहीं रह जाती, जिससे रसों में उसे सबसे ऊँचा स्थान प्राप्त हो सके।
वीर रस तीन प्रकार का माना गया है, अर्थात् १ युद्ध-वीर, २ दया-वीर और ३ दान-वीर। इस रस का स्थायी उत्साह है। जान-बूझकर विना कारण पाशविक बल के प्रदर्शन-स्वरूप भी युद्ध हो सकता है, तथा दीनों की रक्षा, सत्सिद्धांतों के समर्थन एवं सभ्यता-संवर्द्धन के लिये भी युद्ध हो सकता है। पहले ढंग का युद्ध निद्य, पर दूसरे ढंग का प्रशंनीय है।
यद्यपि युद्ध-वीर का स्थायी भाव उत्साह है, फिर भी इस उत्साह