पृष्ठ:मतिराम-ग्रंथावली.djvu/३६

विकिस्रोत से
यह पृष्ठ अभी शोधित नहीं है।
३२
मतिराम-ग्रंथावली



का परिणाम विघातक है, संयोजक नहीं। दान और दया-वीर का उत्साह युद्ध-वीर के उत्साह की अपेक्षा मनुष्य में देव-प्रकृति का विशेष परिचायक है। परंतु समग्र वीर-रस के अंतर्गत केवल तीन ही प्रकार के (युद्ध, दान और दया-संबंधी उत्साह) उत्साह मानने से यह रस एक प्रकार से अपूर्ण-सा रह गया है। कुछ आचार्यों का यह कहना बिलकुल ठीक है कि जब उत्साह से ही वीर-रस की उत्पत्ति है, तो धर्म-वीर, कर्म-वीर, विद्या-वीर आदि और नाना प्रकार के वीर भी वीर-रस के अंतर्गत क्यों न माने जायँ ? यहाँ हम यह बात स्पष्ट कह देना चाहते हैं कि अन्य सभी प्रकार के वीर-रसों का समावेश युद्ध, दान और दया के अंतर्गत नहीं किया जा सकता है। उत्साह एक बड़ा हो अमूल्य स्थायी भाव है, परंतु उसमें उत्तेजक तथा प्रेरणा करानेवाली प्रवृत्ति ही विशेष है। संग्राहकत्व का सांगोपांग भाव उसमें पर्याप्त परिणाम में नहीं है। उसके आवेश में बड़े-बड़े काम हो सकते हैं, परंतु विकासमान सुशृंखलित रूप में सृष्टि का संगठन- कार्य उनके द्वारा कहाँ तक संभव है, यह कोई भी निश्चय-पूर्वक नहीं कह सकता। ऐसी दशा में वीर-रस को (जैसा कि वह साहित्य-ग्रंथों में सुलभ है) उत्साह स्थायी के आश्रित होने से सब रसों में श्रेष्ठता नहीं प्राप्त हो सकती है।

शृंगार-रस का स्थायी भाव रति या प्रेम है। प्रेम का महत्त्व सर्व-मान्य है। इंद्रिय-परितृप्ति के लिये विषय-वासना के भावों से पूर्ण काम-प्रवृत्ति और प्रेम एक ही वस्तु नहीं है। प्रेम एक दैवी विभूति है। यह संग्राहक है, और संयोजक भी। मनुष्य के हृदय में जो मृदुल-से-मृदुल भाव उठ सकते हैं, प्रेम उन सबसे बढ़कर है । उच्च-से-उच्च भाव प्रेम के पीछे-पीछे अनुधावन करते हुए पाए जाते हैं । सृष्टि की रक्षा का श्रेय प्रेम को है। धर्म का बंधन भी इसी के द्वारा परिपुष्ट है । चाहे उत्साह के विना संसार का काम चल जाय,