पृष्ठ:मतिराम-ग्रंथावली.djvu/३५७

विकिस्रोत से
यह पृष्ठ अभी शोधित नहीं है।
३५३
ललितललाम

s- ललितललाम ३५३ नाथ-तनै तिहिं ठौर भिरयौ, जिय जानि के छत्रिन कौं रन कासी; सीस भयो हर हार सुमेरु, छता' भयो आपु समेरु को बासी॥३३॥ सत्रुसाल सुत सत्य मैं, भावसिंह भूपाल । एक जगत मैं जगत है, सब हिदुन की ढाल ॥३४॥ तिमिर तुलति तुरकान प्रबल दिसि बिदिस प्रगट्टत ; चलत पंथ पंथीन धरम स्रुति' करम निघट्टत । लखत न लोचन लोक अवनिपति मोह नींद रस; धरनि बलय सब करत जानि कलिकाल आप बस । 'मतिराम' तेज अति जगमता भावसिंह भूपाल महँ; दिनकर दिवान दिन-दिन उदित- करत सदिन सब जगत कहँ ॥३५॥ परम प्रबीन धीर धरमधूरीन दीन बंधु सदा जाकी परमेसुर मैं मति है ; दुज्जन बिहाल करि, जाचक निहाल करि, जगत मैं कीरति जागई जोति अति है। राव सत्रुसाल को सपूत पूत भावसिंह, 'मतिराम' कहै जाहि साहिबी फबति है ; जानपति, दानपति, हाड़ा हिंदुवानपति, दिल्लीपति-दलपति बलाबंधपति है ॥३६॥ १ सता, २ सत, ३ लोचननि, ४ रजनि, ५ संसार। छं० नं० ३३ नाथ-तन =गोपीनाथ के पुत्र छत्रसाल । सीस... बासी=छत्रसालजी का मुंड महादेवजी की धारण की हुई मुंडमाला में सुमेरु गिना गया और स्वयं छत्रसालजी को स्वर्ग प्राप्त हुआ। छं० नं० ३५ निघट्टत=मिटाता है। छं० नं० ३६ जानपति ज्ञानपति अथवा सुजानपति । बलाबंधपति=अड़ाबेला-नामक पर्वत-माला का स्वामी ।