। ansaAGARCINE ३५४ मतिराम-ग्रंथावली मौजन सों 'मतिराम' कहै कबि लोगन कौं जिमि भोज बढ़ावै ; रोस किए रनमंडल मैं खल-देह की खालनि भूमि बढ़ावै । रीझ हू खीज मैं राव सता-सुत ___कीरति मैं अति जोत चढ़ावै ; भाऊ दिवान गुरू सब भूपर भूपन दान कृपान पढ़ावै ॥३७॥ भावसिंह की रीझ कौं, कविता भूषन-धाम । ग्रंथ सुकबि ‘मतिराम' यह कीनौं ललितललाम ॥३८॥ उपमा-लक्षण जाको बर्नन कीजिए, सो उपमेय प्रमान । जाकी समता दीजिए, ताहि कहत उपमान ॥३९॥ जहाँ बरनिए दुहनि की सम छबि को उल्लास । पंडित कबि 'मतिराम' तहँ उपमा कहत प्रकास ॥४०॥ उदाहरण एक रजपूत है दिवान भावसिंह जाको, जंग जूरें चौगूनो चढ़त चित चाव मैं; सत्रुसाल-नंद को सुजस 'मतिराम' यातें, फैलत महीपति-समाज समुदाव मैं । दिल्ली के दिनेस के प्रचंड तेज आँच लागे, पानिप रह्यो न काहू भूपति तलाव मैं ; छं० नं० ३७ दान कृपान पढ़ावै युद्ध करना सिखलाता है। छं० नं० ४० उल्लास= व्यंग्य-मर्यादा के विना जो प्रकट हो ।
पृष्ठ:मतिराम-ग्रंथावली.djvu/३५८
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