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पृष्ठ:मतिराम-ग्रंथावली.djvu/३५९

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३५५
ललितललाम

ललितललाम ३५५ ऐसे सब खलक तें सकल सकिलि रही, राव मैं सरम जैसे सलिल दरयाव मैं ॥४१॥ प्रानपियारो मिल्यो सपने में परी __जब नै सुक नींद निहोरें; कंत को आइबो त्यौं ही जगाय सखी - कहे बैन पियूषनिचोरें। यों ‘मतिराम' भयो हिय मैं सुख बाल के बालम सौं दग जोरें; ज्यौं पट मैं अति ही चटकीलो चढ़ि। रँग तीसरी बार के बोरें ॥४२॥* पूर्णोपमा-लक्षण बाचक अरु उपमेय जहँ, साधारन उपमान । पूरन उपमा कहत हैं, तहँ 'मतिराम' सुजान ॥४३॥ उदाहरण आलस बलित कोरै काजल-कलित 'मति- राम' वै ललित अति पानिप धरत हैं ; सारस सरस सोहैं सलज सहास, सगरब सबिलास वै मृगनि निदरत हैं। बरुनी सघन बंक तीछन कटाछ बड़े, लोचन रसाल उर पीर ही करत हैं; छं० नं० ४१ समुदाव=समुदाय, समूह । दिल्ली तलाव=दिल्ली- श्वररूप प्रचंड सूर्य के ताप से संतप्त राजारूप सरोवरों में आब (पानिप) निःशेष है । खलक संसार । दरयाव=समुद्र ।

  • देखो रसराज उदाहरण प्रौढ़ा आगतपतिका ।