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पृष्ठ:मतिराम-ग्रंथावली.djvu/३७

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समीक्षा

चाहे यह संभव हो कि संसार का कोई भी प्राणी शोक से संतप्त न हो, परंतु प्रेम के विना संसार-चक्र एक क्षण को भी नहीं घूम सकता है। प्रणय सूत्र में बँधकर स्त्री-पुरुष की संसार-यात्रा सृष्टि की विजय है। स्त्री-पुरुष की प्रीति में उच्छृंखलता हो सकती है। प्रीति बिगड़कर काम वासना-परितृप्ति के रूप में एक पापाचरण हो सकता है, इसलिये समाज में उसका नियंत्रण किया गया है।विवाह इस नियंत्रण का फल है। श्रृंगार रस का स्थायी भाव प्रेम इसी वैवाहिक प्रेम का पोषक है। अन्य प्रकार के नर-नारी-प्रेम को वह रसाभास कहकर दूषित ठहराता है। सारांश, ऊपर दिखलाए सभी स्थायी भावों में प्रेम की महत्ता सर्वमान्य है। एक बार सब स्थायी भावों के संबंध में फिर से विचार कीजिए। क्या हास्य, क्रोध, भय, जुगुप्सा और विस्मय की बराबरी प्रेम से की जा सकती है? कदापि नहीं। प्रेम इन सबसे कहीं बढ़कर है। शोक और प्रेम का भी क्या मुक़ाबला? आशा-निराशा, संयोग और नाश में जो भेद है, वही प्रेम और शोक में है। शोक में मृदुल करुणा का जहाँ तक समावेश है, वह सब प्रेम के विरह-रूप में मौजूद है। शांति, निर्वेद अथवा प्रेम में कौन श्रेष्ठ है, यह बतलाना भी कठिन नहीं है। एक ओर संसार से विराग है, दूसरी ओर उससे अनुराग है। एक ओर सुख का अभाव है, दूसरी ओर आनंद का अगाध सागर है। एक ओर संपूर्ण क्रिया-शून्यता है, दूसरी ओर मृदुल मानुषी जीवन है। कम-से-कम इस मृत्यु-लोक में तो प्रेम की ही विजय है, और हमारा विचार है कि परलोक में भी मनोकामना पूरी कराने में इससे बड़ा और कोई सहायक नहीं मिल सकता है। उत्साह में उत्तेजना और प्रेरणा की अधिकता है, हर संग्राहकत्व और संयोजना में वह प्रेम के पीछे है। उत्साह के कई रूपांतर प्रेम के आश्रित हैं। सो सब स्थायी भावों में प्रेम की बराबरी करनेवाला और कोई स्थायी भाव नहीं है।