पृष्ठ:मतिराम-ग्रंथावली.djvu/३६१

विकिस्रोत से
यह पृष्ठ अभी शोधित नहीं है।
३५७
ललितललाम

ललितललाम उदाहरण तेज-निधाननि मैं रबि ज्यौं, छबिवंतन मैं बिधु ज्यौं छवि छाजै ; सैलनि मैं ज्यौं सुमेर लसै, बर बृक्षनि । _ मैं कलपद्रम साजै । देवनि मैं 'मतिराम' कहै मघवा जिमि' सोहत सिद्ध समाजै ; राव सता-सुत भाव दिवान जहान के राजनि मैं इमि राजै ॥४९।। रूपजाल नंदलाल के, परि करि बहुरि छटै न । खंजरीट-मृग-मीन-से, ब्रजबनितन के नैन ॥५०॥ रसनोपमा-लक्षण जहाँ प्रथम उममेय सो, होत जात उपमान । तहाँ कहत रसनोपमा, कबि ‘मतिराम' सुजान ॥५१॥ उदाहरण काहु को न बड़ो कुल, काहू को न बड़ो भाग, देखे बर भूमिपाल सकल जहान के ; काहू को न बड़ो हियो, काहू को न बड़ो हाथ, काहू के न बड़े हाथी सुकबि बखान के। कहै 'मतिराम' सब राजत अनुप गन, राव भावसिंह बलाबंध सुलतान के ; बंस सम बखत बखत, सम ऊंचो मन, __ मन सम कर, कर सम करी दान के ॥५२॥ १ सम, २ सदा जै, ३ बड़े, ४ सुरतान । राव=राव भावसिंह। छं० नं० ४९ बिधुचंद्रमा। मघवा=इंद्र । सता-सुत=छत्रसाल के पुत्र । छं० नं० ५० खंजरीट=खंजन ।