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पृष्ठ:मतिराम-ग्रंथावली.djvu/३६३

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ललितललाम


- प्रतीप-लक्षण जहँ प्रसिद्ध उपबर्न' को पलट कहत उपमेय । बरनत तहाँ प्रतीप हैं कवि जन जगत अजेय ।।५७।। उदाहरण जाकी खीज भूपति भिखारी से निहारे होत, भूप से भिखारी जाकी रीझि पै सराह की; नपति को थप्पन उथप्पन समर्थ सत्रु, साल-सत करै करतुति चित चाह की। कहै 'मतिराम' फली चहूँ चक्क आन, __ चहुवान-कुल-भानु भावसिंह नरनाह की : राव सरिवर उमराव कैसे पावै पात- साह सरि पावै बलाबंध पातसाह की ॥५८।। द्वितीय प्रतीप-लक्षण जहाँ और उपमान लहि, बर्म्य अनादर होय । तहौं प्रतीपहि कहत हैं, कबि-कोबिद सब कोय ।।५९।। उदाहरण सागर मैं गहराई, मेरु मैं उचाई रति- _नायक मैं रूप की निकाई निरधारिए ; दान देवतरु मैं, सयान सुरगुरु मैं, प्रसाद गंगनीर मैं, सु कैसे के बिसारिए। १ उपमान, २ के, ३ खीझे, ४ उपमेय, ५ जन । दीवालों को पोतती है अर्थात् कीर्ति-धवलता दिदिगंत व्याप रही है। सुधा=अमृत, चूना । भुवप्पति=भूपति, राजा। छं० नं० ५८ थप्पन- उथप्पन=बनाने और बिगाड़ने का काम । रति-नायक=काम ।