पृष्ठ:मतिराम-ग्रंथावली.djvu/३८२

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३७८ मतिराम-ग्रंथावली mense द्वितीय तुल्ययोगिता-लक्षण जहँ हित मैं अरु अहित मैं, बरनत बय॑हि तूल । तुल्ययोगिता और तहँ, कहत सुकबि मतिमूल ॥१३३॥ उदाहरण जे निसि-दिन सेवन करें, अरु जे करै बिरोध । तिन्हैं परम पद देत हरि, कहौ कौन यह बोध ॥१३४॥ दीपक-लक्षण बयं-अबय॑नि को जहाँ, धरम होत है एक । बरनत हैं दीपक तहाँ, कबि करि बिमल बिबेक ॥१३५।। उदाहरण चंचल निसि उदबस रहैं, करत प्रात बसि राज। अरबिंदनि मैं इंदिरा, सुंदरि नैननि लाज ॥१३६॥ दीपकावृत्ति-लक्षण जहँ दीपक मैं होत है आबर्तन को जोग। त्रिबिधि कहत आवृत्तिजुत दीपक सब कबि लोग ।।१३७।। शब्दावृत्ति-उदाहरण जागत हौ तुम जगत में भावसिंह की बान' । जागत गिरिबर कंदरनि अरिबर तजि अभिमान ॥१३८॥ अर्थावृत्ति-उदाहरण . लखौ लाल तुमकौं लखत, यौं बिलास अधिकात । बिहँसत ललित कपोल हैं, मधुर नैन मुसकात ॥१३९।। १ दीवान । छं० नं० १३४ बोध==ज्ञान । छं० नं० १३६ चंचल निसि उदबस रहैं लाज=सुंदरी के नेत्रों में लज्जा की श्री और कमलों की श्री यह दोनों रात में उजड़ी रहती हैं और प्रातःकाल होते ही उनका चमत्कार आ जाता है।