उद्दीपन–विभाव
जिस प्रकार से श्रृंगार-रस के आलंबन-विभाव महत्त्व-पूर्ण हैं, वैसे ही उसके उद्दीपन-विभाव भी औरों के उद्दीपन-विभाव से कहीं अधिक रमणीय और मनोरंजक हैं। ऋतुओं की रमणीयता, वन-विहार, सुंदर उपवन, भाँति-भाँति के फूल, विमल चंद्रिका, गीत-वाद्य-विनोद, मधुरालाप और निर्जन स्थान आदि का वर्णन श्रृंगार-रस के उद्दीपन के अंतर्गत आ जाता है। एक आचार्य की तो यह राय है कि संसार के सभी उत्तम और मेध्य पदार्थ श्रृंगार के उद्दीपक हैं। यह बात निश्चय-पूर्वक कही जा सकती है कि श्रृंगार-रस के उद्दीपकों में प्रकृति की रमणीयता तथा संसार की अन्य सभी मानसोल्लासकारिणी मेध्य सामग्री सम्मिलित है। ऐसी दशा में इसका उद्दीपन सहज ही अन्य रसों के उद्दीपन से हृदय पर विशेष प्रभाव उत्पन्न करनेवाला सिद्ध हो जाता है। कहने का तात्पर्य यह कि श्रृंगार-रस का उद्दीपन अन्य रसों के उद्दीपन से कहीं बढ़कर है।
अनुभाव सात्विक भाव
रसों के अनुभावों का निश्चय नहीं किया गया है, परंतु ध्यान से देखने पर अनुभाव भी श्रृंगार-रस में ही परिपुष्ट दिखलाई पड़ते हैं। सात्त्विक भावों का संपूर्ण सामंजस्य तो श्रृंगार के बाँटे ही पड़ा है। हाव-नामक कुछ अन्य दशाएँ भी शृंगार की ही एकमात्र संपत्ति हैं।
निदान विभाव, अनुभाव, स्थायी भाव और संचारी भाव आदि सभी के विचार से श्रृंगार-रस की श्रेष्ठता प्रतिपादित होती है। उपरि-कथित इन सभी बातों में श्रृंगार को ही अधिक शक्तिशाली देखकर प्राचीन आचार्यों ने श्रृंगार-रस को 'रसराज' का पद प्रदान किया था। संस्कृत और हिंदी के बड़े-बड़े आचार्यों का यही मत रहा