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पृष्ठ:मतिराम-ग्रंथावली.djvu/३९९

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STATE ललितललाम कबि ‘मतिराम' जैसे तीछन कटाच्छ तेरे, ऐसे कहा सर हैं अनंग के निखंग मैं। सहज सरूप सुथराई रीझ्यो मेरो मन, डोलत है तेरी अदभुत' की तरंग मैं। सेत सारी ही सौं सब सौतें रँगी स्याम रंग, सेत सारी ही सौं स्याम रंगे लाल रंग मैं ॥ २२५॥ तृतीय विषम-लक्षण इष्ट अर्थ उद्यमहि ते जहँ अनिष्ट है जाय । और बिषम बरनत तहाँ जे कबि कोबिद राय ॥ २२६ ॥ उदाहरण बिरह आँच डरि मन सखी, घन सुंदर तन जाय । दुगुन दाह बाढ़े तहाँ, आपुहि जाय सिरायः ॥ २२७ ॥ प्रथम सम-लक्षण जहाँ दुहूँ अनुरूप को, कबिजन करत बखान । तहाँ समुझि सम कहत हैं, जे सुरंग रस४-ज्ञान ॥ २२८ ॥ उदाहरण मोहन को मुखचंद अली निज नैन चकोरन को दरसावै; लोचन भौंर गुपाल के आपने आनन बारिज बीच बसावै । १ अचरज, २ ताप, ३ बिलाय, ४ सम सुरगुरु । छं० नं० २२७ विरह-संताप से डरकर सखी शरीर में कपूर लगाती है पर उससे संताप दूना हो जाता है और फिर आप-ही-आप ठंडा हो जाता है । इसका एक अर्थ यह भी हो सकता है-नायिका विरहिणी है, इसलिये उसका शरीर संतप्त है। ऐसे शरीर में निवास करनेवाला मन डरकर घनश्याम (सरस कृष्ण) का स्मरण करता है, पर इससे दुःख और भी दूना हो जाता है । घन-घनसार=कपूर । छं० नं० २२९ मोहन का मुख चंद्र और मोहिनी के नैन चकोर, गोपाल के लोचन भौंर और नायिका का मुख कमल, सुवर्णांगी नायिका और लाल यह सब सम हैं।