पृष्ठ:मतिराम-ग्रंथावली.djvu/४१०

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मतिराम-ग्रंथावली

४०६ मतिराम-ग्रंथावली ALSASUR E RA al imamatapmoney PATRAwaamanaMeanemam Assegetariandergartime - .ne.vedeo.budiAwaamansamasummawaanananda । १ A विकल्प-लक्षण सम बलजुत द्वै बात को बरनत जहाँ बिरोध । कबि-कोबिद सब कहत हैं तहँ बिकल्प स्रुति' सोध ।। २७५॥ उदाहरण बिपिन-सरन के चरन तकौ राव ही के, चढौ गिरि पर कै तरंग परवर मैं ; राखौ परिवार कौं कि आपनीये हठ राज- संपति दै मिलौ के नगारे दै समर मैं । कहै ‘मतिराम' रिपुरानी निज नाहनि सौं, बौलें यों डरानी, भावसिंहजू के डर मैं ; बैर तौ बढ़ायो कह्यौ काहू को न मान्यौ, अब दाँतनि तिनूका के कृपान गहौ कर मैं ॥२७६।। प्रथम समुच्चय-लक्षण बहुत भए इकबारगी, तिनको गुंफ जु होय । ताहि समुच्चय कहत हैं, कबि-कोबिद सबकोय ॥२७७॥ उदाहरण पाइ इकत के बाल सो बालम जो रति रूप कला दरसावै ; नाहीं करै मुख नारि के नाह जहीं हिय सौं हियरो परसावै । काम बढ़ौ 'मतिराम' तहीं अति लाल बिलासनि कौं सरसावै ; जोवै-त्रसै, मन मोवै अनँद मैं, रोवै-हँसै रस कौं बरसावै ।। २७८॥ १ मति २ बैर तब ठान्यो, ३ तहाँ ४ लाज, ५. यों। छं० नं० २७६ राजसंपति 'समर मैं=या तो धन की भेंट लेकर मिलो या डंका बजाकर सम्मुख समर करो। दाँतनि तिनूक गहौ= अत्यधिक दैन्य-भाव दिखलाओ । छं० नं० २७८ जोवै=देख । त्रसै= डरै । मन मोवै अनंद मैं मन को आनंदयुक्त करती है।